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11 May 2017 · 1 min read

बुद्ध पूर्णिमा

न गौतम बुद्ध के जैसा सखावत देखते हैं हम
न अब हर शख्स की खातिर मुहब्बत देखते हैं हम
?
हुआ है शर्म से चेहरा गुलाबी ऐ मेरे दिलबर
तेरी मासूम आंखों में मुहब्बत देखते हैं हम
?

जो कल तक था मेरा हमदम पकड़ हाथ चलता था
उसी का आज आंखों में बगावत देखते हैं हम
?
हुआ है शर्म से चेहरा गुलाबी ऐ मेरे दिलबर
तेरी मासूम आंखों में मुहब्बत देखते हैं हम
?
मिली है फक्त नफरत ही जहां के बस निगाहों में
सनम दिल में तुम्हारे ही शराफत देखते हैं हम
?
तुम्हे छूकर ये लगता है गुलाबों को छुआ जैसे
तुम्हारी हर अदा -ए-गुल नज़ाकत देखते हैं हम
?
हुए हैं हुक्मरां जो अब पुजारी फक्त दौलत के
के मज़हब में भी अब हर सूं सियासत देखते हैं हम
?
गुलामी है अभी कायम वतन में अपने ऐ साहिब
जिधर देखो उधर “प्रीतम” ये नफरत देखते हैं हम

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