बुढ़ापा
उम्र तो एक संख्या है
गणित का खेल ही सही
ढ़ल जाती है कभी न कभी
ढ़लने से इसे रोको अभी
बन गई है क्यों लाचार अभी
अपनों ने भी किया विचार नहीं
दूर तक जो चली थी थामें कभी
थमने से इसे रोको बस अभी
जब धूप थी तो ये छाँव बनी
अब छाँव है तो धूप चली
बाँधो न इसे,बँध जाओ
बँधकर के सँभल जाओ
गिर गये उठ न पाओगे
अपनों से ही लजाओगे
दहलीज पे खड़ी इस उम्र को
जाने न दो दरवाजे से
जो चली गई दरवाजे से
फिर चौखट भी शर्माएगी…..