बाप की इस बेबसी पर बेटियाँ रोने लगीं
ग़ज़ल
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अब्र की इस बेरुख़ी पर बिज़लियाँ रोने लगीं
फिर जमीं की आज़ ये बेताबियाँ रोने लगीं
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हल्दी मेहदी और सहरे से हुई नफ़रत मुझे
देख उसकी बेरुख़ी शहनाइयाँ रोने लगीं
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मुफ़लिसी में हाथ पीले जब नहीं वो कर सका
बाप की इस बेबसी पर बेटियाँ रोने लगीं
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चोट खाकर चुप हुआ तो आइना भी रो पड़ा
जब्त मेरा देख कर खामोशियाँ रोने लगीं
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हो रही थी जब बिदाई आज़ बेटी की मेरे
हम सभी तो रो रहे थे बस्तियाँ रोने लगीं
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किस तरह पुरजोर होकर चल रही थी वो हवा
जब नशेमन गिर गया तो आँधियाँ रोने लगीं
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झूले थे झूला कभी हम आम की जिस डाल पर
आज़ पहुंचा जब वहाँ अमराइयाँ रोने लगीं
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कल अमीरी में ज़माना साथ मेरे था खड़ा
मुफ़लिसी में मेरी ही परछाइयाँ रोने लगीं
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मेरे ख़ाबों का महल इक ज़लज़ले में ढह गया
फिर दरो-दीवार सारी खिड़कियाँ रोने लगीं
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हम हुए आजाद लेकिन खोये कितने शूरमा
देश ने जो ली है वो कुरबानियाँ रोने लगीं
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बागबाँ ही है मसलता जब कली और फूल को
बाग़ की ग़मगीनियों पर तितलियाँ रोने लगीं
——@ गिरह
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जान पे बन आई “प्रीतम” बेवकूफ़ी उनकी और
फँस गयीं जब जाल में तो मछलियाँ रोने लगीं
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प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)
12/08/2017
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2122 / 2122/2122/212
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