बाढ़
विधा-छन्दमुक्त कविता
लगता है डर आषाढ़ से
जिन्दगी त्रस्त है बाढ़ से
अतिवृष्टि जब होता है
किसान बैठकर रोता है।
नदियों का बढ़ता जलस्तर
मचाता है हर तरफ कहर
घर में खूब पानी भर जाता
कुछ सामान नजर न आता
सारी गृहस्थी बर्बाद हो जाती
अच्छी जिन्दगी तबाह हो जाती।
क्या खाये,पहने क्या पियेंगे हम
पेड़ पर बैठ कर कैसे जियेंगे हम
कुदरत के आगे क्या करें सरकार
बेसहारा खुदा की करे गुहार।
नूरफातिमा खातून नूरी
जिला-कुशीनगर
उत्तर प्रदेश