–बलात्कार–सार छंद की परिभाषा और कविता
“सार”छंद की परिभाषा और कविता-
सार छंद
———-यह एक ललित छंद है।इसमें चार चरण होते हैं।प्रत्येक चरण में अठाइस-अठाइस मात्राएँ होती हैं।प्रत्येक चरण की यति सोलह-बारह मात्राओं पर होती है;और चरणांत में दो गुरू मात्राएँ आती हैं। दो-दो चरण में तुकांत अनिवार्य है।
सार छंद की कविता–“बलात्कार”
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तन का या मन का बुरा सदा, बलात्कार होता है।
हँसता नहीं कभी जिसका भी,बलात्कार होता है।
न खेलो भावनाओं से तुम,न रोन्दो तन को ही।
अपने मन को टटोलो कभी,सौंपो तुम मन को ही।
जो लुटा वो समाज में सोच,कैसे रह पाएगा।
आइने का सामना क्या वो,खुश हो कर पाएगा।
गैर को रौंदने से पहले,अपने पर जाँचो तो।
जो तकलीफ़ें महसूस करो,मन से फिर बाँचो तो।
शायद सह न सकोगे तुम भी,फिर और सहे कैसे?
इस दर्द को लेकर ज़िन्दा वो,बताओ रहे कैसे?
डूब मर चुल्लू भर पानी में,रूहें सताने वाले।
चैन से जी सकेंगे जीवन,यहाँ ज़माने वाले।
कभी गैर को स्वयं समझना,तुम इंसान बनोगे।
कभी दर्द को मर्म समझना,तुम इंसान बनोगे।
मैं को हम में बदल देखना,तुम इंसान बनोगे।
संतोष के पल जी देखना,तुम इंसान बनोगे।
शोषण भी बलात्कार ही है,न करना तू किसी का।
धोखा भी बलात्कार ही है,न बनना तू किसी का।
अगर मानव है तो सरल बन,जीना जीने देना।
दिन माँगे कोई तुझसे तो,यार महीने देना।
प्रकृति को देख प्रीतम जी भर,सदा बाँटती आई।
फिर भी सुंदर मनोहर घनी,रंग छाँटती आई।
तू भी इसके रंग में रंग,आकर्षक हो जाए।
सारे सुख वैभव भर दें रस,उर हर्षित हो जाए।
राधेयश्याम बंगालिया “प्रीतम”
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