बदल न पाए तासीर को
देखता हूँ जब भी बार-बार तेरी तस्वीर को।
कर लेता हूँ याद फिर मैं अपनी ही तक़दीर को।।
तुम वही हो वर्षों से ख़्वाबों में छाई रही हो।
ढूँढता था जिसको में देख हाथों की लकीर को।।
मेरे तस्व्वुर में बसी है भोली-सी सूरत सुघर।
बुलाता हूँ प्यार भरी आवाज़ देकर हुज़ूर को।।
देखो कभी नाराज़ नहीं हो भूल से भी हमदम।
हर बात सह लूँगा सह न सकूँगा यार गरूर को।।
दो ज़िस्म एक जान बनके रहेंगे हम तो सदैव।
मिलजुल सह लेंगे दोनों ही ज़माने की पीर को।।
हम न रूठेंगे एक दूसरे से किसी हाल में।
विश्वास से इतना भरलें हम दिल की जागीर को।।
“प्रीतम”तेरी प्रीत का इतना तो सिला मिल जाए।
बदल ना पाए कोई हम दोनों की तासीर को।।
राधेयश्याम बंगालिया “प्रीतम”
मात्राएँ…28-28
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