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28 Jun 2018 · 4 min read

उलझन सुलझे ना उम्दा अश’आर

—संकलनकर्ता: महावीर उत्तरांचली

(1.)
इलाही ख़ैर हो उलझन पे उलझन बढ़ती जाती है
न मेरा दम न उन के गेसुओं का ख़म निकलता है
—सफ़ी लखनवी

(2.)
अगर तुम साथ दे देते मैं हर अड़चन से लड़ लेता
उलझती जा रही जो और उस उलझन से लड़ लेता
—रमेश प्रसून

(3.)
कहाँ ले जाएगा मुझ को ज़माना
बड़ी उलझन है कोई हल तो निकले
—महावीर उत्तरांचली

(4.)
तू ने सुलझ कर गेसू-ए-जानाँ
और बढ़ा दी शौक़ की उलझन
—जिगर मुरादाबादी

(5.)
जीना पहले ही उलझन था
और लगे उलझाने लोग
—कँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर

(6.)
ये उलझन तो बस उलझन है कुछ पाना है कुछ खोना है
साहिल की तमन्ना करते हुए मौजों की रवानी कैसे लिखूँ
—कविता किरन

(7.)
एक उलझन सी रही ऑफ़िस में
घर पे कुछ छूट गया था शायद
—डॉक्टर आज़म

(8.)
पैग़ाम-ए-बहार दे रही है
दाग़ों की झलक दिलों की उलझन
—असर लखनवी

(9.)
सारी साँसें आँधियाँ हैं और मैं मुरथल की रेत
और बढ़ जाती है उलझन आँधियों धीरे चलो
—कुंवर बेचैन

(10.)
उलझन बढ़ी तो चंद ख़राबे ख़रीद लाए
सौदे में अब की बार ज़ियाँ हो गए तो क्या
—पी पी श्रीवास्तव रिंद

(11.)
मैं अपने आप से उलझी हुई हूँ मुद्दत से
मज़ीद आ के न उलझन बढ़ा परेशानी
—बिल्क़ीस ख़ान

(12.)
रंज, उलझन, घुटन, परेशानी
रोग कोई रहा नहीं बाक़ी
—सिया सचदेव

(13.)
मिरी उलझन सुलझती जा रही है
दिखाया है तुम्ही ने रास्ता तो
—नज़ीर नज़र

(14.)
कौन निकला है अपनी उलझन से
और को पा सका है कब कोई
—ज़िया जालंधरी

(15.)
‘फ़ाज़िल’ रुख़-ए-हयात पे यूँ थीं मसर्रतें
जैसे ग़म-ए-हयात की उलझन में कुछ न था
—फ़ाज़िल अंसारी

(16.)
उलझे रिश्तों की तल्ख़ उलझन में
उलझा उलझा ‘सहाब’ रहता है
—लईक़ अकबर सहाब

(17.)
कोई तहरीर नहीं है जिसे पढ़ ले कोई
ज़िंदगी हो गई बे-नाम सी उलझन की तरह
—कृष्ण बिहारी नूर

(18.)
मकड़ियों के जालों में जैसे कीड़े हों बे-बस
उलझे हैं कुछ ऐसे ही अहल-ए-फ़िक्र उलझन में
—इश्तियाक तालिब

(19.)
उलझन तमाम उम्र यही थी कि ज़ीस्त में
आए कहाँ से रंग कि ख़ुशबू कहाँ से आए
—सलीम फ़राज़

(20.)
किस उफ़ुक़ में दफ़्न हो जाता है दिन
हर शब इस उलझन को सुलझाता हूँ मैं
—प्रीतपाल सिंह बेताब

(21.)
ध्यान आ गया जो शाम को उस ज़ुल्फ़ का ‘रसा’
उलझन में सारी रात हमारी बसर हुई
—भारतेंदु हरिश्चंद्र

(22.)
मुल्तफ़ित जब से है नज़र उन की
दिल को दर-पेश है नई उलझन
—नासिर ज़ैदी

(23.)
ज़िंदगी क्या इसी उलझन में गुज़र जाएगी
क्या अभी और भी बिगड़ेंगे ये हालात कि बस
—ओम कृष्ण राहत

(24.)
अगर उलझन नहीं कोई तो क्यूँ मैं
मुसलसल सोचता हूँ जागता हूँ
—तस्लीम इलाही ज़ुल्फ़ी

(25.)
कैसी उलझन हे बाज़ी-गह-ए-शौक़ में
हम हैं इन की तरफ़ वो किसी की तरफ़
—एहसान दानिश

(26.)
सारी उलझन उसी से पैदा हुई
वो जो वाहिद है बे-तहाशा था
—सग़ीर मलाल

(27.)
आसाब सुन रहे थे थकावट की गुफ़्तुगू
उलझन थी मसअले थे मगर रात हो गई
—ख़ालिद मलिक साहिल

(28.)
वो नहीं तो उन का हर लम्हा ख़याल
हर-नफ़स पर एक उलझन हो गया
—वजद चुगताई

(29.)
पानी ले आए हैं अब एक नई उलझन है
कूज़ा-गर तेरे लिए ख़ाक कहाँ से लाएँ
—लियाक़त जाफ़री

(30.)
‘हफ़ीज़’ अपने अफ़्कार की सादगी को
तकल्लुफ़ की उलझन से आज़ाद रखना
—हफ़ीज़ जालंधरी

(31.)
ख़ुशियाँ चला हूँ बाँटने आँसू समेट कर
उलझन है मेरे सामने हक़दार कौन है
—गोविन्द गुलशन

(32.)
कोई धड़कन कोई उलझन कोई बंधन माँगे
हर-नफ़स अपनी कहानी में नया-पन माँगे
—फ़रहत क़ादरी

(33.)
रास्ता रोके खड़ी है यही उलझन कब से
कोई पूछे तो कहें क्या कि किधर जाते हैं
—जावेद अख़्तर

(34.)
दाम-ए-ख़ुशबू में गिरफ़्तार सबा है कब से
लफ़्ज़ इज़हार की उलझन में पड़ा है कब से
—अमजद इस्लाम अमजद

(35.)
पड़ गया जब तू ही ईन-ओ-आँ की उलझन में ‘शुजाअ’
लाख फिर सज्दे में शब भर तेरी पेशानी पड़े
—शुजा ख़ावर

(36.)
जैसे जैसे गुत्थियों की डोर हाथ आती गई
कुछ इसी रफ़्तार से बढ़ती गई उलझन मिरी
—ग़ज़नफ़र

(37.)
चैन पड़ता है दिल को आज न कल
वही उलझन घड़ी घड़ी पल पल
—सय्यद आबिद अली आबिद

(38.)
एक बे-नाम सी उलझन की तरह फिरती है
शहर से रोज़ मज़ाफ़ात को जाती है ये शाम
—शाहिद लतीफ़

(39.)
कौन सुलझाए गेसु-ए-दौरान
अपनी उलझन से किस को फ़ुर्सत है
—हफ़ीज़ बनारसी

(40.)
फिर हर इक बात ठीक से होती
फिर न उलझन न फ़ासले होते
—सलमान अख़्तर

(41.)
भारी अगरचे है मन हर साँस जैसे उलझन
कट जाएँगे यक़ीनन ये इंतिज़ार लम्हे
—सलीम मुहीउद्दीन

(42.)
उलझन सी होने लगती है मेरे चराग़ को
कुछ दिन मुक़ाबले पे जो उस के हवा न हो
—फ़रहत एहसास

(43.)
रोज़-ओ-शब इक नई उम्मीद नई सी उलझन
आज़माइश जिसे समझे थे नतीजा निकली
—क़ैसर ख़ालिद

(44.)
अपने ही घर में हैं या सहरा में गर्म-ए-सफ़र
क्यूँकर सुलझाएँ ये उलझन चाँद हवा और मैं
—हामिद यज़दानी

(45.)
वही अफ़्कार की उलझन वही माहौल का जब्र
ज़ेहन पा-बस्ता-ए-ज़ंजीर-ए-गिराँ है यारो
—मजीद लाहौरी

(46.)
ज़िंदगी में है वो उलझन कि परेशाँ हो कर
ज़ुल्फ़ की तरह बिखर जाने को जी चाहे है
—कलीम आजिज़

(47.)
उस के जाने का यक़ीं तो है मगर उलझन में हूँ
फूल के हाथों से ये ख़ुश-बू जुदा कैसे हुई
—सरमद सहबाई

(48.)
आख़िरी बार उसे इस लिए देखा शायद
उस की आँखें मिरी उलझन की वज़ाहत कर दें
—शगुफ़्ता अल्ताफ़

(49.)
तुम्हारी ज़ुल्फ़ की उलझन में फँस कर नींद खो बैठे
कभी सोते नहीं ख़्वाब-ए-परेशाँ देखने वाले
नख़्शब जार्चवि

(50.)
फिर वही याद-ए-गुज़िश्ता वही उलझन वही ग़म
दिल को उन बादा-ओ-साग़र से भी बहला देखा
मजीद मैमन

(51.)
काबे ही के रस्ते में मय-ख़ाना भी पड़ता है
उलझन में ये रह-रौ है जाए तो किधर जाए
दानिश अलीगढ़ी

(52.)
इश्क़ ने अक़्ल को दीवाना बना रक्खा है
ज़ुल्फ़-ए-अंजाम की उलझन में फँसा रक्खा है
हफ़ीज़ जालंधरी

(53.)
वो धूप वो गलियाँ वही उलझन नज़र आए
इस शहर से उस शहर का आँगन नज़र आए
साबिर वसीम

(54.)
हो न उलझन जब जुनून-ए-जामा-वर कामिल न हो
जब तलक दामन है ख़ार-ए-दश्त दामन-गीर है
—मोहम्मद अली जौहर

(55.)
सोते जागते उठते बैठते अपने ही झगड़े नहीं कम
और कई ज़ातों की उलझन एक ज़ात के बारे में
—ज़फ़र इक़बाल

(56.)
आज क्यूँ हद से सिवा उलझन हमारे दिल में है
क्या नसीब-ए-दुश्मनाँ वो भी किसी मुश्किल में है
—मंज़र लखनवी

(57.)
ज़ामिन मिरी उलझन के उलझे हुए गेसू हैं
बे-वज्ह मिरी ‘जुम्बिश’ कब तब-ए-रसा उलझी
—जुंबिश ख़ैराबादी

(साभार, संदर्भ: ‘कविताकोश’; ‘रेख़्ता’; ‘स्वर्गविभा’; ‘प्रतिलिपि’; ‘साहित्यकुंज’ आदि हिंदी वेबसाइट्स।)

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