बच्चों के मन जैसा पारसा नहीं देखा
आज़ का हासिल
बह्र —
बह्रे हज़ज़ मुसम्न अशतर
(1)
हमने तो ज़माने में आपसा नही देखा
पाक-साफ़ दिलवाला दूसरा नही देखा
ख़त्म सिलसिला क्यूँ तुम कर रहे हो यूँ मुझसे
लेके दिल भुलाने का क़ायदा नहीं देखा 2
ख़त्म हो तनफ़्फ़ुर बस प्यार हो जहाँ हमने
जिन्दगी का अब तक वो मरहला नहीं देखा 3
जो लुटा दे अपनी जां एक दिन मुहब्बत में
आज़ तक तो हमने़ वो सरफिरा नही देखा………. 4
सूखा है जो बरसों से बाग़ दिल का जो मेरे
छोड़ कर गया है वो फिर हरा नही देखा———5
ग़लतियों को समझेगा किस तरह वो
बोलो तो
आज़ तक कि जिसने है आइना नहीं देखा ———6
जो पिया था बचपन में दूध माँ के आँचल का
आज़ तक किसी में वो ज़ायक़ा नहीं देखा—-7
वो सुरूर बादे का क्या भला बताएगा
जिसने कि अब तक है मयक़दा नहीं देखा———8
जो उजाला दे सबको थोड़ा भी ज़माने में
हमनें तो अब तक वो तारिका नहीं देखा———9
लोग दावे करते हैं अपनी पारसाई का
बच्चों के मन जैसा पारसा नहीं देखा———9
लाख़ ग़म उठा कर भी फक्त इस मुहब्बत में
दर्द सह के भी तुमसे दिल जुदा नहीं देखा——-10
थाम ले जो आ करके डूबते सफ़ीने को
मेरे कृष्ण के जैसा नाखुदा नहीं देखा——–11
फिर बहार आ जाए मेरे दिल के बागों में
मैंने यूँ ज़माने में दिलरुबा नहीं देखा——-12
चुन गयी है अब तो इंसानियत दिवारों में
जिस तरह दिलों में है फ़ासला नहीं देखा———13
होती क्या शहादत है किस तरह वो जानेगा
जिसने भी यहाँ “प्रीतम” क़रबला नहीं देखा ——-14
———–@ प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)