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15 Mar 2018 · 1 min read

बचपन था तो कितना अच्छा था ना

बचपन था तो कितना अच्छा था ना
जब चाहा रो लेते थे..जब चाहा हँस लेते थे
जिद अपनी बस यूं ही मनवा लेते थे
खुशियों के दामन में बसेरा था अपना
बड़े हुए तो हुआ ज़िंदगी से सामना
कभी समझौता कभी मुश्किल फैंसले
ये ज़िम्मेदारियां, वो ख्वाहिशें
अपने से ज्यादा वो अपनों की खुशियां
मन में संघर्ष..होंठों पर मुस्कुराहट
अपना कौन ये पहचानने की वो हसरत
पाया लेकिन खुद को अकेला..अपनों की भीड़ में
वो खुलकर रोने की चाहत..खुलकर जीने की चाहत
पर ज़िंदगी से वादा निभाने की भी कोशिश
मुख पर वो बेवजह खिलखिलाहट
जीवन को यूं कुछ आसां बनाने की चाहत
ईश्वर ने सौंपा जो किरदार उसे निभाने की कोशिश
ज़िंदगी को कुछ यूं अब समझने लगी हूं
किस्मत ने जैसे चाहा..बस ढलने लगी हूं
ना कोई समझे जब मन की उलझन
खामोशी की चादर फ़ैलाने लगी हूं
ईश्वर को ही दोस्त बनाने लगी हूं
©® अनुजा कौशिक

Language: Hindi
340 Views
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