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14 Oct 2020 · 1 min read

फिर भी क्यूँ इल्ज़ाम आया शाम पर

अब वो हंसता ही नहीं इनआम पर
और रोता भी नहीं इल्ज़ाम पर

बिक गया ईमान बिकता है ज़मीर
बोलियाँ लगती रहीं बस नाम पर

वो भी है तैयार बिकने के लिए
सिर्फ़ झगड़ा है कि क्या हो दाम पर

वो दिया तूफ़ान से लड़ता रहा
फ़ालतू में जो रखा था बाम पर

सुब्ह ने दीपक बुझाए थे मगर
फिर भी क्यूँ इल्ज़ाम आया शाम पर

आपकी मर्ज़ी से था आग़ाज़ भी
चौंकते हो क्यूँ मगर अंजाम पर

ज़िन्दगी अपनी लुटा दी ग़म नहीं
मस्त आँखों के तुम्हारे जाम पर

जीत हासिल हो गई है आज फिर
खेलकर बाज़ी उसी गुमनाम पर

रोज़ ही आराम करते आप हो
क्यूँ नहीं ‘आनन्द’ जाते काम पर

– डॉ आनन्द किशोर

1 Like · 179 Views
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