प्रेम
प्रेम
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है प्रेम पलता चहुँदिशा में, स्वार्थ से यह दूर है।
जो स्वार्थसाथक प्रेम करता, प्रेम से वह दूर है।
मिथ्या नहीं यह बात सच, गर हो सके तो मानिए।
यह प्रेम मीरा प्रेम राधा, देखिये औ जानिए।
जो प्रेम पलता है हृदय तब, जग लगे रंगीन है।
बिन प्रेम के दुनिया अजब सी, दिख रही संगीन है।।
इस प्रेम के बस में बिदुर घर, श्याम खाये साक थे।
बिन प्रेम के लंका को हनुमत, कर गये तब खाक थे।।
जब प्रेम रघुवर ने किया, स्व जन्मभूमि से कभी।
वह जीत कर सोने की लंका, छोड़ आये थे तभी।।
सबरी के जूठे बेर में भी, प्रेम पलता था कभी।
तब प्रेम में पड़ बेर खाये, राम कहते हैं सभी।।
आशय समझिए प्रेम का, है प्रेम केवल भावना।
है आत्माओं का ये मिलना , यह नहीं है वासना।।
इस प्रेम को उर मे बसा, भगवन से मिलता भक्त है।
इस प्रेम में दुनिया समाहित, जीव हर आशक्त है।।
————- स्वरचित, स्वप्रमाणित
✍️पं.संजीव शुक्ल “सचिन”