प्रदूषित जीवनशैली ; ऐ कैसी मजबूरी….???
प्रदूषित जीवनशैली; ऐ कैसी मजबूरी….???
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आज मैं अपने अतिप्रिय हृदयंग अनुज अमरदीप बाबू का भावनाओं से ओतप्रोत एक अत्यंत हृदयस्पर्शी लेख पढ रहा था जिसमें उन्होंने माता के आंचल में मिलने वाले सुख से लेकर गवई शुद्ध हवाओं का सटीक वर्णन बड़े हीं सलीके से किया था,
पढकर जहा छोटे भाई के लिए हृदय से प्रेम की गंगा प्रवाहित हो रही थी वहीं गाँव की सुखद, सुन्दर, मनभावन स्मृतियाँ मन को व्यथित करने लगी।
गाँव में आज भी , जबकि इक्कीसवीं सदी का पाश्चात्य संस्कृति युक्त असर दिखने लगा है फिर भी जो आत्मिक सुकून है, माँ अब बुढी होकर थकने लगी है फिर भी उसके हाथों के स्नेहिल स्पर्श में जो लगाव है, आत्मा को तृप्त कर देने वाली ममत्व की अनुभूति है, उस ममतामयी आंचल में जो आत्मिक शान्ति है वह कही और कहाँ ।
वैसे पिताश्री के चेहरे पर उभर आईं बढतें उम्र, अत्यंत थकादेने वाले अबतक के ब्यतीत जीवन की झुर्रियां बहुत कुछ कह जाती हैं अबतक हमारे लिए हमारे भावी पीढियों के लिए तत्परता के साथ निरंतर प्रयत्नशील उनके द्वारा किए गये कर्तव्य निर्वहन की अनकही कहानी। क्या हमारा देख रेख इनसे बेहतर भी कोई कर सकता है?
गाँव की सुन्दर, साफ,स्वच्छ हवाओं में हृदय के तार- तार को झंकृत कर देने की जो क्षमता है वह महानगरों में मिलने वाले विज्ञान प्रदत्त सुख सुविधाओं , विष मिश्रित इन प्रदूषित हवाओं, यहाँ के भौतिकतावादी जीवनशैली में कहा। इन अमृततुल्य हवाओं से विलग होतो वक्त एक बार मन अवश्य ही कहता है “ऐं हवा मेरे संग – संग चल”
वाकई जीवन यापन, भौतिक सुख सुविधा प्राप्ति के लोभ – लोलुपता के एवज में हमने आजतक बड़ा भारी मुल्य चुकाया है और चुकाते जा रहे है।
गाँव से जब भी हम महानगरों के लिए प्रस्थान करते हैं अमुमन प्रत्येक व्यक्ति को अपने गांव की वो आबोहवा जिससे उस वक्त वह विमुख हो रहा होता है अंदर तक हिला तो अवश्य देती है , मन कचोटता जरूर है, क्यों, कहाँ और किसलिए जैसे नजाने कितने प्रश्न मन के गलियारे में ऊधम मचाने लगते हैं और हमारे पास निशब्दता के शिवाय और कोई दूजा चारा नहीं रहता।
ट्रेन में बैठने से लेकर अपने छोटे किन्तु हृदय के अत्यधिक करीब उस स्टेशन को छोड़ने तक मन के आंगन से एक निरीह आवाज आती है काश हमें नहीं जाना पड़ता या आज नहीं जाते है परन्तु तभी
भौतिक सुख सुविधा के लिए ललायित हमारा यह मन या फिर अभावग्रस्त हमारे इस वर्तमान जीवन के थपेड़े चटाक से हमारे मनोमस्तिष्क पर लगते है और हम आगे की उस बीना मन के यात्रा के लिए कृतसंकल्पित हो निकाल पड़ते हैं।
जैसे – जैसे ट्रेन आगे बढने लगती है बाहरी नजारे जैसे,हवाओं के ताल पर नृत्य करते सरसों के फूल, हमें मुंह चिढाते मदोन्मत्त उतान खड़े गन्ने का पेड़, वो जाने पहचाने बाग-बगीचे , खेत- खलिहान, स्कूल, ननीहाल, ससुराल तक पहुचाने वाले सगे से प्रतीत होने वाले ये रास्ते जबतक हमारे नजरों से ओझल नहीं होते हमारे हृदय को व्यथित करते रहते है जैसे ये इसारों हीं इसारों में हमसे पूछ रहें हों , अरे निर्मोही हमें छोड़ कर कहाँ जा रहे हो तुम ? अपनो को छोड़ कर कीन सुखो की खोज में भटक रहा है तूं?
और हम इनकी मुक भाषा को समझ कर भी निरुत्तर सा अपने इस अनचाही यात्र पर निकल पड़ते हैं शायद यही हमारा प्रारब्ध हो, और फिर जैसे ही हम इन महानगरों में प्रविष्ट होते हैं हमारा स्वागत करती है यहां की प्रदूषित हवा, विषयुक्त जल, अशान्त बातावरण, विषैली साक – सब्जी व भोज्यपदार्थ ,ध्वनि प्रदूषण ये बड़े ही क्रूर भाव से अपनी भुजाओं को फैलाये हमें अपने आगोश में समा लेने को प्रतिबद्ध रहते हैं।
ना ही हमें यहां सावन का वो मदमस्त महीना मिलता है और नाहीं पवन का वो प्रतीक्षित शोर , नाहीं वसंत का बहार और नाहीं कोयल की वो हृदय को तृप्त करती कूक,
नाहीं पुरवैया की वो आहट और नाही पछुवाँ की संसनाहट , मिलती है तो बस हृदयविदारक चीख-पुकार, सोर-सराबा , मन को अक्रान्त करती कोलाहल और क्रन्दन, अपने स्तर को कबकी लांघ चूकी प्रदूषित हवायें।
साहब मन खिन्न हो उठता है अपने इस भौतिकतावादी उपलब्ध संसाधनों के आदी हो चुके वर्तमान जीवनशैली पर, शायद हर एक सुख – सुविधा होते हुए भी आज आपका मन भी रोता होगा उन गवई सभ्यताओं, संसाधनों, आपसी सौहार्दपूर्ण बातावरण को अंगीकार करने को ,आपका मन भी ऊद्यत्त होता तो अवश्य हीं होगा ।
साहब आपका भी दिल करता तो अवश्य ही होगा माँ के आंचल में सर रख कर शान्ति से सोने की, माँ के हाथों की स्नेहिल स्पर्श को पाने की इच्छा हृदय को लालायीत अवश्य करती होगी , कभीकभी पिता जी के डाट में समाहित प्रेम को अंगीकार करने का भी मन करता होगा , गाँव के उन आत्मा को तृप्त कर देने वाली शुद्ध हवाओं में जहाँ के एक – एक कण कण से हमारा आत्मीयता का संबंध है विचरण करने का मन करता तो अवश्य ही होगा
किन्तु हमारा यह अहम की अब हम बड़े हो गये, अपने, अपने स्वजनों, अपने अग्रिम पीढी के लिए हमारा कर्तव्यबोध हमें ऐसा करने से रोक देता है।
काश ; हम इतने मजबूर न होते, काश !!
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पं.संजीव शुक्ल “सचिन”