पेट….!!
पेट….
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आंख खुलने से
बंद होने तक
खुद के लिये रुलाता
उल्टे सीधे काम
हमसे यह करवाता
दिखता बहुत छोटा
किन्तु
सागर सी गहराई है
इंसान तो इंसान
विधाता भी
जान ना सके
कितनी बड़ी
यह खाई है।
इंसान को ये
गुमराह करता है
सबको हैरान
परेशान करता है
हर झगड़े का घर ये
हर टूट का जड़ ये
जितना खाओ पर
तबतक भरता नहीं
जबतक की इंसान
मृत्यु का वरण
करता नहीं
यह भिख मंगवाता
वेश्यावृत्ति करवाता
झूठ बोलने को उकसाता
हर पाप करवाता
दुनिया में हर फसाद का
एकमेव आधार यही
इसिलए हर कर्म
या कुकर्म का सुत्रधारा यहीं
ईश्वर की कृति
अनसुलझा चेट है यह
एक गरीब के लिए
अभिशाप और कुछ नहीं
हमारा पेट है यह..!!
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पं.संजीव शुक्ल “सचिन”