पीर ….नारी हृदय की
पीर..नारी हृदय की
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कैसे कर भूलजाऊं मैं
उन मधुर स्मृतियों को
तेरे संग ब्यतीत सुन्दर पलों को
तुम थे तो जिन्दगी रौशन थी
तुम थे तो दुनिया हशीन थी
आज हृदय का कोना- कोना पुछता है
यह मन हर पल तुझे ही ढूंढता है
क्यों कर चले गये तुम
मेरी भावनाओं को तोड़ कर
मुझे यूं अकेला छोड़ कर
लोग कहते है तुम्हें भुल जाऊं
तुम्हारे बगैर ही जीवन बीताऊं
माना कभी तुम अंजान थे
मेरे लिए अपरचित समान थे
जब से मिले हम तुम्हारे हो गये
तुझे ही समर्पित तुम्हारे सपनों में खो गये
पल दो पल के लिए मिले तुम
फिर चिरनिद्रा में सो गये
ये आंखे हरपल ढूंढती हैं तुम्हें
नजाने किस दुनिया में खो गये
मेरे सपनों को विराम लगा गये
मेरे अरमानों की चीता जलती रही धूं धूं कर
तनिक भी न सोचा हमें रुला गये।
मेरे इस जीवन का कौन दूजा आधार है
तुम्हारे बीन कितना असुन्दर
कितना सुना यह सारा संसार है
मेरे लिए तो जैसे यह चीता समान है
तुमने जो फूल दिये मुझे
उनके भविष्य को सवारने का प्रयत्न करती हू
उन्हीं में तुम्हारा अश्क देखती हूँ
तुम्हारे माँ-बाप का ध्यान खुद से ज्यादा रख
उन्हीं के सहारे तुम्हें पूजती हूँ
अब जब भी मिलना मुझे यूं न रुलाना
मुझे अकेला छोड़ सपनों को तोड़
यूं कभी फिर से न जाना।
तुम्हारी हृदय की पटरानी प्रियतमा।।
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©®पं.संजीव शुक्ल “सचिन”