Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
11 May 2020 · 12 min read

पांडवों का गृहस्थी जीवन!उत्कर्ष एवं पराभव। शेष भाग

पांडवों का यह सर्वोच उत्थान का वैभव काल था,
राजसूर्य यज्ञ करके उनकी यश पताका बढ़ गई,
उधर दुर्योधन के मन में अपमानित होने से,
प्रतिकार की भावना बढ़ने लगी थी,
उसे पांडवों से इर्ष्या बहुत बढ़ गई ्थी्थ्थी््थी्थ्थी
उसने मामा शकुनि से, अपनी पीड़ा का इजहार किया,
मामा शकुनि ने झट से इसका उपाय सुझा दिया,
कहने लगा, पांडवों को तुम हस्तिनापुर में बुलाओ,
हस्तिनापुर में उन्हें ध्यूत क़ीडा के लिए उकसाओ,
दुर्योधन को यह पसंद तो आया,
लेकिन उसने मामा से यह कहा,
यदि वह ना आएं तो फिर क्या करेंगे,
शकुनि ने उसको यह मंत्र बताया,
पिता धृतराष्ट्र से यह निमंत्रण भिजवाओ,
और उन्हें हस्तिनापुर में बुलाओ,
बाकी सब कुछ मैं संभाल लूंगा,
ध्यूत क़ीडा में ऐसा फंसाऊगा,
सब कुछ लुटा कर, दिवालिया बनाऊंगा,
बस तुम तो महाराज को पटालो,
और एक बार पांडवों को यहां बुलवालो,
दुर्योधन ने इसका पांसा फेंक दिया,
पिता से युधिष्ठिर को बुलावा भेज दिया,
युधिष्ठिर ठहरे,धीर गम्भीर,
उन्होंने यह स्वीकार कर लिया,
और दुर्योधन की कुटिलता पर नहीं विचार किया,
पांडव हस्तिनापुर में आ गए थे,
धृतराष्ट्र ने उन्हें, ध्यूत का आमंत्रण दिया,
जिसे युधिष्ठिर ने बिना विचारे स्वीकार किया,
अब चौसर की बिसात सज गयी थी,
युधिष्ठिर से क्रीडा का दांव लगवाया,
और अपनी ओर से शकुनि से दांव लगवाया,
युधिष्ठिर ने तब कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई,
और यही वजह उनके पतन के काम आ गई,
शकुनि ने पुरा जाल बिछाया था,
चौसर की गोटियों को पहले ही बदल दिया,
खेल शुरू होने को ही था कि,
विदुर ने अपनी राय जताई,
शकुनि दुर्योधन के प्रतिनिधि हैं भाई,
तो, गोटियां भी दुर्योधन की ही चलेंगी,
और शकुनि को यह अहसास पहले से ही पता था,
उसने दुर्योधन से गोटियां देने को कहा,
और इस प्रकार उसने वह गोटियां पा ली थी,
जिसपर उसने महारत पाई हुई थी,
अब दांव पर दांव लगाते थे,
युधिष्ठिर हर दांव पर हार जाते थे,
अब खेल भावना को छोड़ दुर्योधन ने कुटिलता दिखाई,
और युधिष्ठिर से सारी संपत्ति थी पाई,
युधिष्ठिर को तब भी यह होस ना आया,
ना ही उसने खेल रुकवाया,
सब कुछ हार कर उसने यह सोचा था,
शायद अब खेल आगे नहीं होगा,
लेकिन शकुनि की तो चाल अलग थी,
उसने दांव के लिए युधिष्ठिर को उकसाया,
और युधिष्ठिर ने दांव पर सहदेव को लगाया,
सहदेव को भी जब हार गए,
तो फिर एक एक कर सब भाईयों को दांव पर लगा दिया,
और फिर स्वयंम को भी हार गया ,
अब दुर्योधन ने फिर उकसाया,
और द्रौपदी को दांव पर लगाने को कहा,
बुद्धि विवेक को खोकर, युधिष्ठिर ने यह भी कर लिया,
और अंतिम दांव पर द्रौपदी को भी हार गया,
अब दुर्योधन में उन्माद आ गया था,
द्रौपदी से अपने अपमान का बदला लेने का समय पा गया था,
उसने द्रौपदी को राजसभा में बुलाया,
द्रौपदी ने यह प्रस्ताव ठुकराया,
तब अधीर होकर उसने दुशासन से कहा,
खींच कर ले आओ उसे,
दुशासन खींच लाया उसे,
जो उनके ही कुल की बंधू है,
द्रौपदी ने सभा में, पिता मह भीष्म से पुछा,
यह क्या अनर्थ हो रहा है पितामह,
भीष्म कुछ बोल नहीं पाए,
तब उसने कुल गुरु को पुछा,
उनसे भी कुछ कहा नहीं गया,
तब द्रौपदी ने गुरु द्रोण से पुछा,
गुरु द्रोण ने भी सिर को दिया झूका,
जब किसी ने भी सहायता को हाथ नहीं बढ़ाया,
तब उसने अपने पतियों को पुकारा,
लेकिन युधिष्ठिर ने मर्यादा का ख्याल किया,
और अर्जुन वह भीम के प्रतिकार को रोक लिया,
तब फिर दुर्योधन ने दुशासन से कहा,
खींच लो इसके वस्त्र,
और कर दो निर्वस्त्र,
दुशासन ने वस्त्र खींचना आरंभ किया,
द्रौपदी ने चिल्ला चिल्ला कर कहा,
कोई तो मेरी लाज बचाओ,
लेकिन आज सभी महारथियों को सांप सूंघ गया था,
किसी ने भी इस काम का ना विरोध किया था,
थक-हार कर उसने, श्रीकृष्ण को पुकारा,
हे कृष्ण माधव हरे मुरारी,
हे नाथ नारायण वासुदेव,
लुट रही लाज सखि की,
आकर अपनी कृपा करो जी,
कृष्ण ने सुन ली थी पुकार,
दौड़े चले आए सरकार,
अपने भक्त की लाज बचाई,
स्वंयम को ही साड़ी बनाई,
द्रौपदी के वस्त्र में समां गये,
और इस प्रकार वस्त्रावतार कहलाए,
दुशासन खींच खींच कर हारा,
और फिर चक्कर खाकर पछाड़ा,
सब का मान मर्दन किया,
भक्त को संकट से उबार लिया,
अब जो कुछ हार गए थे पांडव,
उसका परिमार्जिन करना था,
बदले में बनवास और अज्ञात वास सहना था,
इस को पूरा करने को चल दिए थे,
बनवास में इन्होंने, कुछ पुरुषार्थ के काम किए,
भीम ने हिडंभ राक्षस को मारा था,
बनवासीयों को उससे छुटकारा मिला था,
हिंडंबा जब अकेले हो गई थी,
तो उसने भीम से विवाह कर ने को कहीं थी,
भीम ने माता की आज्ञा पाई,
फिर हिडिंबा से शादी रचाई,
इधर अर्जुन ने भी दिब्यास्त्रौं के लिए तप किया था,
और अनेकों प्रकार से स्वंयम को सक्षम किया था,
फिर उन्होंने अज्ञात वास में स्वंयम को छुपा लिया,
भेष बदल कर, नाम वह काम भी बदल दिया,
इस प्रकार उन्होंने अज्ञात वास भी निभाया,
लेकिन इसी मध्य एक समस्या से भी जुझना पड गया,
जब कीचक ने द्रौपदी को छेड़ दिया,
द्रौपदी ने इसे भीम को बताया,
भीम ने उसे नृत्य शाला में बुलवाया,
यहां पर अर्जुन के वाद्ययंत्र की ध्वनि हो रही थी,
उधर भीम और कीचक में जंग छिड़ी थी,
घनघोर युद्ध दोनों में हुआ था,
लेकिन कीचक भीम के प्रहार से बच नहीं सका था,
और कीचक मौत ने हाहाकार मचा दिया,
इसका पता हस्तिनापुर में भी पंहुच गया था,
कीचक के बंध से संशय बना हुआ था,
इस लिए दुर्योधन को यह शक हुआ था,
उसने विराट राज पर आक्रमण कर दिया,
विराट राज मत्स प्रदेश के युद्ध में गया था,
तब बृहनला के रूप में अर्जुन ने यह प्रस्ताव किया,
राज कुमार उत्तर से युद्ध में चलने को कहा,
उत्तर को भी अपने पराक्रम को दर्शाना था,
उसने भी यह प्रस्ताव को स्वीकार किया था,
युद्ध को जब वह पंहुच गये थे,
तब उत्तर को अपनी क्षमता पर संशय हो रहा था,
उसने बृहनला से वापस चलने को कहा था,
लेकिन तब अर्जुन ने अपना परिचय दिया,
और उत्तर से सारथी बनने को कहा,
उत्तर ने भी वही किया,
अर्जुन ने युद्ध में हस्तिनापुर को हरा दिया,
अब उनका अज्ञात वास भी पुरा हो गया था,
लेकिन दुर्योधन ने इसे स्वीकार नहीं किया था।।

दुर्योधन की हठ और पांडवों के हक के मध्य का वृत्तांत।

अब युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर में अपना दूत भेजा,
दूत के माध्यम से यह प्रस्ताव किया,
इन्द्र प्रस्थ को लौटा दिया जाए,
दुर्योधन ने इसे अस्वीकार कर दिया,
और अपने दूत से यह कहला दिया,
जहां है वहीं पर रहो,
इन्द्र प्रस्थ का विचार छोड़ दो,
इधर श्रीकृष्ण ने एक और प्रयास किया,
और युधिष्ठिर की ओर से यह सुझाव दिया,
इन्द्र प्रस्थ को नहीं देना चाहते हो तो ना सही,
तुम इतना काम कर लो,
पांडवों को पांच गांव ही दे दो,
दुर्योधन ने इसे भी नकार दिया,
और श्रीकृष्ण को गिरफ्तार करने को कहा,
अब श्रीकृष्ण ने अपना रुप बताया,
राज सभा में अपनी शक्ति को दिखाया,
लेकिन अंहकार में डूबे दुर्योधन ने इस पर ध्यान नहीं दिया,
इस प्रकार युद्ध का उद्घघोष हुआ,
दोनों ओर सेना आ खड़ी हो गई,
रण की रणभेरी बज गई,
अपनी अपनी ओर से शंखनाद हुआ,
तभी रणभूमि में अर्जुन को वैराग्य उत्पन्न हो गया,
तब रण क्षेत्र में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया था,
और मनुष्य को कर्म करने का उपदेश दिया था,
अब अर्जुन युद्ध को सजग हो गया,
दोनों ओर से युद्ध प्रारंभ हो गया था,
युद्ध में दोनों पक्षों के योद्धा लड़ते रहे,
और बीरगति को प्राप्त होते रहे,
दिन प्रतिदिन युद्ध बढ़ता जा रहा था,
और कोई न कोई योद्धा अपने को न्यैछावर किए जा रहा था,
युद्ध को समाप्त न होता देख दुर्योधन भड़क गया,
फिर तो उसने भीष्म पितामह से पक्षपाती होने का दोष धर दिया,
अब पितामह भीष्म ने युद्ध में कोहराम मचाया था,
इसे देखते हुए श्रीकृष्ण भी घबरा गया था,
तब श्रीकृष्ण ने चक्र धारण लिया था,
और देवव्रत भीष्म को मारने चला था,
श्रीकृष्ण के चक्र धारण करने पर,
भीष्म ने धनुष बाण छोड़ दिये ,
और श्रीकृष्ण को मुस्करा कर कह गए,
हे माधव मेरा यह प्रण तो आपने पूरा कर लिया है,
इस लिए आज मैंने हथियार छोड़ दिया है,
अगले दिन फिर युद्ध होगा,
तब भी मेरा युद्ध ऐसे ही रहेगा,
तब श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा था,
पितामह के पास जाकर, उन्हें यह बताओ,
पितामह मैं तुम्हरा आशीर्वाद लौटाने को आया हूं,
क्योंकि, आपके समक्ष हम जीत नहीं सकते,
तो फिर इस आशीर्वाद का हम क्या करेंगे रख के,
तब भीष्म ने अपनी मुक्ति की राह बताई,
और आज के युद्ध में पांडवों ने यही चाल चलाई,
भीष्म को रण क्षेत्र से बाहर कर दिया था,
शिखंडी को भीष्म के सम्मुख खड़ा किया था,
अब द्रौणाचार्य सेनापति बन गये थे,
द्रौण के समक्ष भी अर्जुन कम ही पड़े थे,
अब दुर्योधन का धैर्य खत्म हो रहा था,
वह द्रौणाचार्य से युधिष्ठिर को बंधी बनाने को कह गया था,
द्रौणाचार्य ने इसके लिए चक्रब्यू की चाल चली,
और उधर दुर्योधन से अर्जुन को ब्यस्त रखने की बात कही,
दुर्योधन ने इसके लिए मत्स्य राज सुसर्मा को कहा,
अर्जुन को युद्ध में ललकार कर ब्यस्त रखना है,
सुसर्मा ने वही किया था,
अर्जुन को युद्ध करते हुए दूर ले गया था,
इधर चक्रब्यू का जब पांडवों को पता चला,
तब पांडवों को अपनी हार का अहसास हुआ,
लेकिन अभिमन्यु ने युधिष्ठिर से आकर बताया,
अंदर जाने का मार्ग मुझे आता है,
बाहर आने का ज्ञान नहीं है,
तब युधिष्ठिर ने कहा हम तुम्हारे साथ रहेंगे,
और चक्र ब्ल्यू को भेदने को चल पड़े थे,
अभिमन्यु ने तो अपना कहा पुरा कर दिया था,
लेकिन प्रथम द्वार पर जयद्रथ खड़ा था,
उसने पांडवों को अंदर नहीं जाने दिया था,
अभिमन्यु वहां पर अकेला रह गया था,
अब उसने जान लिया था,
असाध्य काम उसने ठान लिया था,
पुरे मनोयोग से उसने रण कौशल दिखाया,
सभी महारथियों को उसने पृथक-पृथक करके हरा दिया था,
तब सभी महारथियों ने युद्ध के नियमों को त्याग दिया,
और मिलकर अभिमन्यु पर प्रहार किया,
उसने इसका प्रतिकार किया था,
लेकिन युद्धोनुमाद में उन्होंने इस पर विचार नहीं किया था,
आखिर में वह अकेला पड़ गया था,
और धूर्त्त कंपटियों के खिलाफ खुब लड़ा था,
लेकिन विधि के विधान में आज उसका अंतिम दिन था,
सांझ ढलने पर जब अर्जुन लौटा,
तब उसे कुछ अनिष्ट का आभास हुआ,
उसने शिविर में युधिष्ठिर से पुछा,
क्या हुआ है,आज यह सन्नाटा क्यों छाया है,
परन्तु कोई कुछ कह नहीं पाया था,
अब उसे लगने लगा था, कुछ तो बुरा आज हुआ है,
अभिमन्यु भी शिविर में मौजूद नहीं है,
कोई कुछ कह भी नहीं रहे हैं,
तब श्रीकृष्ण ने उसकी आंसका को समझाया,
युद्ध में अभिमन्यु के रण का वृत्तांत सुनाया,
और इसके प्रतिकार को करने को कहा,
तब अर्जुन ने यह प्रण लिया,
कल सूर्य ढलने से पूर्व मै जयद्रथ को मारुंगा,
और यदि नहीं मार पाया तो अग्नि समाद्धी ले लूंगा,
दूसरे दिन का युद्ध जयद्रथ को बचाने, और मारने में सीमित रहा,
और फिर सांझ ढल गई, तो कौरव सेना में उल्लास हुआ,
जयद्रथ भी अब सामने आकर चिढ़ा रहा था,
अर्जुन ने धनुष बाण छोड़ दिया था,
वह चिंता में सम्माने को उद्धत हुआ था,
तभी सूर्य देव ने अपनी किरणों से प्रकाश कर दिया था,
अब दुर्योधन सहित कौरव पक्ष डर गया था,
जयद्रथ तो भागने लगा, तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा,
पार्थ अपने वचन का पालन करो,
जयद्रथ सामने ही है संधान करो,
और ऐसे जयद्रथ का वध किया गया,
अर्जुन के प्रण भी पुरा हुआ,
दुर्योधन अब बौखला गया था,
उसने द्रौण से पांडवों के वध को कहा था,
द्रौण ने भी पुरी शक्ति लगा दी थी,
पांडव पक्ष में द्रौणाचार्य को मारने पर संशय बना था,
द्रौणाचार्य का कोई सामना ना कर सका था,
तो श्रीकृष्ण ने एक युक्ति बताई,
अश्वशथामा को मार डालने की सूचना फैलाई,
द्रौणाचार्य ने इसे सत्य नहीं माना,
और युधिष्ठिर से पुछने को आ गए,
युधिष्ठिर ने भी तब परिस्थितियों के कारण इसे सत्य ही बताया,
साथ में ही यह भी दोहराया,नरो भा कुंजरा,,
लेकिन द्रौण इसे पुरा सुन नहीं पाए थे,
श्रीकृष्ण ने उसी समय शंख ध्वनि से शब्दों को सुनने से बचाए थे,
बस तब द्रौणाचार्य ने हथियार त्याग दिए,
और अवसर पाकर धृष्टद्युम्न ने द्रौण पर प्रहार किया,
अपने खड़क से द्रौण का सिर शरीर से अलग किया,
अर्जुन को यह पसंद नहीं आया था,
और उसनेे अपने ही सेनापति को ललकारा था,
किन्तु कृष्ण और द्रौपदी ने उन्हें समझाया,
इन्हीं के नेतृत्व में अभिमन्यु को मारा गया,
और वह भी निहत्थे पर वार किया था,
एक साथ कई योद्धाओं ने मिलकर मार दिया था,
अब दुर्योधन के समक्ष कर्ण को सेनापति बनाने का अवसर आया और उसनेे कर्ण को अपना सेनापति बनाया ,
अब कर्ण और अर्जुन में घमासान मचा,
एक दिन कर्ण अर्जुन पर भारी पड़ा,
तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया,
कर्ण बड़ा योद्धा है बताया,
तुम अपने लक्ष्य पर डटे रहो,
अपना ध्यान ना भंग करो,
इधर भीम ने दुशासन का वध कर दिया था,
दुशासन के लहू का पान किया था,
और अंजुली में द्रौपदी के लिए रख लिया था,
दौड़ कर द्रौपदी को कहा था,
यह लो पांचाली मैं दुशासन का लहू लाया हूं,
अपने केश को तुम अब धो लो,
अपना प्रण तुम पुरा कर लो,
अब दुर्योधन अकेला रह गया था,
उसने कर्ण से अपने वचन को पूरा करने कहा,
कर्ण ने अपना पुरा जोर आजमाया,
लेकिन आज उसके सामने उसको मिला शाप आडे आया,
रथ का पहिया भूमि में धंसा था,
दिब्यास्त्र भी आज काम नहीं आया,
अर्जुन ने भी बाण का संधान किया,
और कर्ण को लक्ष्य किया,
इस प्रकार कर्ण ने भी अपना बलिदान दिया,
अपने दिये बचनो का मान किया,
अब दुर्योधन के अलावा कोई और नहीं बचा था,
हां, अश्वशथामा और कृपा चार्य, के साथ कृतवर्मा ही रह गए थे,
अंतिम युद्ध दुर्योधन और भीम के मध्य हुआ,
खुब लड़े ये मतवाले, एक दूसरे पर वार पर कर डाले,
युद्ध से यह पीछे नहीं हट रहे थे,
तब श्रीकृष्ण की प्ररेणा से भीम ने,
दुर्योधन की जंघा पर प्रहार किया,
जंघा ही उसकी कमजोर कड़ी थी,
क्योंकि उसने अपनी माता की आज्ञा की अवज्ञा की थी,
माता गांधारी ने अपनी आंखों को खोल कर,
उसे वरदान दिया था,
और उसे अपने कक्ष में नग्न आने को कहा था,
वह जा भी रहा था नग्न अवस्था में माता के कक्ष की ओर,
राह में खड़े थे,नन्द किशोर,
उन्होंने ऐसे जाने का कारण जाना,
और कहने लगे,हे युवराज, ऐसे कोई माता से मिलने जाता है,
कम से कम अपनी इन्द्रियों को तो ढक लेते,
बाकी आपकी इच्छा है,आप जो चाहें करलें,
दुर्योधन को अपनी गलती का एहसास हो रहा था,
उसने भी जो कृष्ण ने कहा था, उसका ही पालन किया था,
और इस तरह उसके जांघ कमजोर रह गई थी,
और उसी की ओर ही कृष्ण ने इसारा किया था,
भीम ने उसकी जांघों पर प्रहार किया,
और इस तरह से इस युद्ध का अंत किया,
दुर्योधन का अब अंत निकट आया था,
तभी अश्वशथामा ने आकर कहा,
मित्र तुमने मुझ पर विश्वास नहीं किया है,
अब भी तुम मुझको सेनापति बना दो,
मैं पांडवों के शव लाकर तुम्हें ला दूंगा,
दुर्योधन ने उसे भी अवसर दे दिया था,
अश्वशथामा ने पांडवों के वध का प्रण लिया था,
रात के अंधेरे में वह पांखडी चल पड़ा,
पांडवों के पुत्रों को, पांडव माना,
और सोते हुए उनका वध कर डाला,
पांडवों के शव जानकर वह उन्हें साथ ले गया,
दुर्योधन को युवराज कह कर पुकारा,
अपना वचन मैंने निभाया है, और शीशों को सामने रख डाला,
दुर्योधन ने जब शवों को देखा,
तो वह निष्ठुर हृदय भी पसीज गया,
उसने कहा ये क्या कर दिया है तुमने,
एक भी वारिस नहीं बचा है कुल में,
इधर द्रौपदी को यह पता चला तो वह विलाप करने लगी,
तब तक पांडवों को यह बात पता चली,
सबके सब ब्याकुल हो रहे थे,
अर्जुन ने इनके हत्यारे को मारने की ठानी,
तब पता चला कि,यह दुष्ट अभिमानी,
अपने गुरु द्रोण का ही पुत्र है,
क्या दंड दें इसको,विचारने लगे,
द्रौपदी ने गुरु पुत्र होने पर छोड़ने को कहा,
तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा,
इस का दंड तो मृत्यु समान है,
इसके मस्तक पर मणी विद्यमान है,
उस मणि को निकाल कर इसे छोड़ दो,
यह अभिषप्त होकर जिएगा,
जीते जी मर कर रहेगा,
इस तरह यह युद्ध थम गया था,
पांडवों के पक्ष में यह युद्ध रहा था,
और भीष्म पितामह ने अब प्रयाण त्यागे,
अब वह आश्वस्त हो गये थे,
हस्तिनापुर सुरक्षित हाथों में गया है,
इधर पांडवों ने राज काज संभाला,
हस्तिनापुर के साथ साथ इन्द्र प्रस्थ को भी संचालित किया,
इन्द्र प्रस्थ को ही राजधानी बनाया,
लेकिन अभी अश्वशथामा का एक और क्रूर ब्यवहार सामने आया,
उसने ब्रह्मास्त्र था चलाया,
उत्तरा के गर्भ में पांडवों का अंश है,
यही उसका भी लक्ष्य है,
अब उत्तरा ने माधव को पुकारा,
हे केशव अब तुम्हीं हो सहारा,
मेरे इस शिशु को बचाओ,
पांडवों के वंश को मुसीबत से निकालो,
तब श्रीकृष्ण ने गर्भ में,परिवेश किया था,
और पांडवों के वंश को ब्रम्मास्त्र से मुक्त करा था,
अब पांडवों निर्भय हो गये थे,
धृतराष्ट्र गांधारी इन्हीं के साथ रह रहे थे,
एक बार विदुर वहां आए,
और धृतराष्ट्र को यह समझाए,
अब संन्यास को धारण करो,
अपने अगले जनम को सुधारने काम करो,
इस प्रकार युधिष्ठिर ने, अपने ज्येष्ठ पिता को,
सब प्रकार से सुख प्रदान किया था,
अपने मन में कभी यह विचार नहीं किया था,
इन्होंने हमारे अधिकारों का हनन किया था,
धर्म राज के अनुसार इनका कार्य रहा,
प्रजा ने भी इन्हें बहुत सम्मान दिया था।।

3 Likes · 3 Comments · 384 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
Books from Jaikrishan Uniyal
View all
You may also like:
देवा श्री गणेशा
देवा श्री गणेशा
Mukesh Kumar Sonkar
विधवा
विधवा
Acharya Rama Nand Mandal
विचार
विचार
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
ये मन रंगीन से बिल्कुल सफेद हो गया।
ये मन रंगीन से बिल्कुल सफेद हो गया।
Dr. ADITYA BHARTI
"अगर आप किसी का
*Author प्रणय प्रभात*
जीवनसंगिनी सी साथी ( शीर्षक)
जीवनसंगिनी सी साथी ( शीर्षक)
AMRESH KUMAR VERMA
मेरी बेटियाँ
मेरी बेटियाँ
लक्ष्मी सिंह
हिन्दी दोहा -भेद
हिन्दी दोहा -भेद
राजीव नामदेव 'राना लिधौरी'
" तुम से नज़र मिलीं "
Aarti sirsat
मेरा दुश्मन
मेरा दुश्मन
सोलंकी प्रशांत (An Explorer Of Life)
इंद्रधनुष
इंद्रधनुष
Dr Parveen Thakur
गुमराह होने के लिए, हम निकल दिए ,
गुमराह होने के लिए, हम निकल दिए ,
Smriti Singh
गोधरा
गोधरा
Prakash Chandra
मैं तो महज वक्त हूँ
मैं तो महज वक्त हूँ
VINOD CHAUHAN
अपनी अपनी सोच
अपनी अपनी सोच
डॉ विजय कुमार कन्नौजे
असुर सम्राट भक्त प्रह्लाद – आविर्भाव का समय – 02
असुर सम्राट भक्त प्रह्लाद – आविर्भाव का समय – 02
Kirti Aphale
3092.*पूर्णिका*
3092.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
*हनुमान (कुंडलिया)*
*हनुमान (कुंडलिया)*
Ravi Prakash
🚩अमर कोंच-इतिहास
🚩अमर कोंच-इतिहास
Pt. Brajesh Kumar Nayak
नया एक रिश्ता पैदा क्यों करें हम
नया एक रिश्ता पैदा क्यों करें हम
Shakil Alam
रोला छंद :-
रोला छंद :-
sushil sarna
सोचें सदा सकारात्मक
सोचें सदा सकारात्मक
महेश चन्द्र त्रिपाठी
सूखी टहनियों को सजा कर
सूखी टहनियों को सजा कर
Harminder Kaur
*सेवानिवृत्ति*
*सेवानिवृत्ति*
पंकज कुमार कर्ण
शिव ही बनाते हैं मधुमय जीवन
शिव ही बनाते हैं मधुमय जीवन
कवि रमेशराज
जरूरी नहीं राहें पहुँचेगी सारी,
जरूरी नहीं राहें पहुँचेगी सारी,
Satish Srijan
ब्याहता
ब्याहता
Dr. Kishan tandon kranti
-- मैं --
-- मैं --
गायक - लेखक अजीत कुमार तलवार
एक छोटा सा दर्द भी व्यक्ति के जीवन को रद्द कर सकता है एक साध
एक छोटा सा दर्द भी व्यक्ति के जीवन को रद्द कर सकता है एक साध
Rj Anand Prajapati
रुलाई
रुलाई
Bodhisatva kastooriya
Loading...