पहाड की नारी
पहाडी पगडण्डियों पर पैदल चलती नारी,
सिर पर घास का बोझ पीठ पर बंधा नन्हा प्राणी,
दोपहरी की चढती धूप में पसीने से तरबतर,
हांफती हुइ वह लौटती है घर।
सुबह अपने मर्द को रात की बासी रोटी चाय मे देकर,
चली गयी थी वह खेत पर ,घास बीनने को,
साथ मे था नन्हा प्राणी सन्जू,
जिसे वह बान्ध कर ले गयी थी पीठ पर,
वह अभि भी पीठ पर बन्धा है,
और जब कभी मचलता है,तभी चिल्ला पडती है गालियों के साथ,
तेजी से चल रहे हैं उसके हाथ,घास पर,
उसे समेटने के लिये,
वह अपने से ही बडबडाती हुइ कहती है,
अब चलती हूँ घर,सन्जू के बाबा आते होंगे,
जो मजदूरी करने गये हैं,सडक पर,
घर मे सास भी कुढ रही होगी
लौटी नही अभी निगोडी,चार फागां नी निपटा सकी अभी तक,
बैलों पर घाम लग गया है,भैंस हाफँ रही है बिना पानी के, मुझसे तो कुछ होता नही,
और ये भी पडे हैं खाट पर, गुड गुडा रहे हैं हुका,
बडकी ने गन्धा कर दिया,है आगन,
अब उसे धुलावुँ,या छुटकी को पकडूँ,
घर की तो चिन्ता ही नही,है कलमुही को,
यह सोचते सोचते,कब घर आ गया,
यह पता ही नही चला, कि तभी खरखराती, हुइ आवाज ने,उसे चौंका दिया,
यह वक्त है घर लौटने का, खांसते हुए ससुर ने कहा,घर का सारा काम पडा है,
हमारी उम्र है अब काम करने की,
कब होगी तुम्हे इस घर की चिन्ता,
उसने घास का बोझ नीचे रखा,
बिना सुसताये,घुस गई रसोई में,
चावल साफ करने को,दाल सुबह रख गई थी चुल्हे पर, उसमे छौंका लगाने को है,
चावल साफ कर उन्हे चुल्हे पर चढाकर,
चलती है,पानी लाने को गधेरे में,
और कोस रही है अपनी किस्मत को,
और साथ मे अपने मां बाप को,
उधर ऊषा दौरे पर है,अपने मर्द के साथ
मै यहाँ पे सड रही हूँ,
एक ही साथ तो पढे खेले थे हम ,
वह आज ठाठ से रह रही है,
कितने सुन्दर दिखते हैं उसके बच्चे,
साफ सुथरे व तन्दुरस्त।
यहाँ बडकी को कब से दस्त लगे हैं,
उसकी दवा तक नही आई,आज तक,
यह सोचते हुए वह लौट आई पानी लेकर,
इधर सन्जू खुश है,बन्धन से मुक्त होकर।
किलकारी मार रहा है दादा के पैरों मे झूलकर,
घुघुती बासुती कि तर्ज पर,
समय बीतता गया धीरे धीरे,
मां की पीडा का अहसास हो रहा है उसे धीरे धीरे,
बेचैनी और मायूसी के बीच,नही सुलझा पा रहा वह यह गुत्थी, कब तक जुझती रहेगी,
पहाड की महिला,पहाड जैसी इस समस्या से।