हृदय की आकांक्षा
सोचता हूँ आज – अभी, अम्बर को गले लगाऊँ मैं
गगन में हैं जितने भी तारे,तोड़ धरा पे लाऊँ मैं।
मार्ग कठिन हों चाहे जितना, तनिक नहीं घबराऊँ मैं,
हर दुर्गम को पार करूँ, हर पथ को सुगम बनाऊँ मैं।
अपने हों या गैर सभी को, हर दिन गले लगाऊँ मैं
दुश्मन हो या दोस्त सभी पर, प्रेम सुधा बरसाऊँ मैं।
आज मानव मानव को मारे, क्या इनको समझाऊँ मैं,
कैसेे रक्त सनी धरती पर, मानव धर्म निभाऊँ मैं।
लालच-लोभ से इनकी नैया, कैसे पार लगाऊँ मैं,
कैसे फिर से ईनको जग में, एक इन्सान बनाऊँ मैं।
सेवा-धर्म संस्कृति हमारी, फिर से इन्हें बतलाऊँ मैं,
राम-कृष्ण के इस धरती को, फिर से पवित्र बनाऊँ मैं।
©®पं.संजीव शुक्ल “सचिन”
9560335952
दिल्ली