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23 Dec 2016 · 1 min read

पलकें झुकाकर, ज़ुल्फ़ों को संवारा उसने

कुछ पल उसको एकटक, यूँ निहारा हमने,
पलकें झुकाकर, ज़ुल्फ़ों को संवारा उसने।

हम तो एकबार भी पलकें झुका न सके,
और फिर पलकें उठाकर, हमें देखा दोबारा उसने।

अभी मुड़कर एक भी कदम न चल सके थे हम,
अपनी मीठी आवाज़ में, हमें फिर पुकारा उसने।

कछ भी तो न दे सका, उसे मैं चन्द मुस्कानों के सिवा,
एक मेरे साथ के लिए, सब कुछ किया गँवारा उसने।

समय ने ढाए जाने कितने ही कहर और सितम हमपर,
किसी भी हालात में हमसे, नहीं किया किनारा उसने।

होंठ कुछ भी न कह सके, आँखों की खामोश गुफ्तगू के दरम्याँ,
मेरे साथ थोडा सा सुहाना वक़्त, कुछ यूँ गुज़ारा उसने।

————शैंकी भाटिया
अक्टूबर 8, 2016

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