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11 Feb 2020 · 1 min read

पर्यावरण

सुधरता नहीं
इन्सान
बिगाड़ता
पर्यावरण
बार बार
होता धरा को
नुकसान जिससे
वहीं करता
वो काम
बार बार

वृक्ष हैं देवता
हमारे
देते छाया हवा
फल फूल हमें
फिर भी
उन्हें ही काटते
बार बार

नदी , झील
तालाबों को
अतिक्रमण कर
पाटते जाते
बनाते
कंक्रीट के जंगल
बार बार

है जीने का
हक सभी को
पशु पंछी
वन्यजीव
मारते खाते
बार बार
तभी होती
विवश प्राकृति
बदला लेने को
बार बार

कभी बाढ़,
कभी सूखा
कभी फैलते वायरस
बार बार

सुधर जा
इन्सां
अब भी
रखो
पर्यावरण को
साफ स्वच्छ
रोको प्रदूषण को
हर बार
चेते नहीं
इन्सां अब भी
विवश होगी
बदला लेने को
प्राकृति मजबूर
बार बार

स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल

Language: Hindi
343 Views
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