परिंदे
दीवाने तुम नहीं परवाने हम नहीं,
कम से कम परिंदे ही बन देख लेते.
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कभी प्रभावी कभी प्रवासी तनिक,
सरहदें तोड़ कर जीना सीख लेते ..
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न कोई ढकोसले होते न कोई मजार
न मंदिर न मस्जिद सिर्फ़ इंसान रहते.
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पहचान होती इंसानियत के पैमानों पर,
न कोई सवर्ण न ही कोई अछूत बनते .
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जान लेते खुद को खुदा से भेंट होती ..
गर पुरुषार्थ में परमार्थ की मंशा होती.
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बनकर धार्मिक हमने बहुत कुछ ..गंवाया है,
इक बार नास्तिक बनकर खुदी को जांच लेते अगर
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होती ओर भी आसां ये डगर ..गर भावों को,
पहचाना पहचान बनाकर जीये होते हम .
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दिया तो लिया भी छोडने के नाम पर जकडे है.
जितना छोडे है और भी जियादा जिक्र हो ते हैं.
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डॉ_महेन्द्र
महादेव क्लीनिक, मानेसर,गुरुग्राम.