पप्पू भैया की नहीं, कहीं गल रही दाल।
विधा- गीतिका
छंद-दोहा
रस-व्यंग
सिर पर टोपी है रखी, मन में बहुत सवाल ।
पप्पू भैया की कहीं,नहीं गल रही दाल।
मोदी जी पर नित नये,लगा रहे आरोप,
झूठे अब प्रपंच रच,करते बहुत बवाल।।
सीट गयी इज्जत गयी,छूटा है अब ताज,
बनते थे इक शेर से, है गीदड़ की खाल।
समझाए यह कौन अब,देश काल की बात,
अब मूरख जन हैं नहीं,फॅसें किसी ना हाल।।
मुॅह में हड्डी है फॅसी,अंदर-बाहर होय,
राजनीति भी दिख रही,अब जी का जंजाल।।
कुछ तो अच्छा कीजिए,अटल कहै है आज,
वरना डूबे नाव अब,हो गति बस बेहाल