पकोड़ों की दुकान … (व्यंग्य कविता)
बुजुर्गों से कभी हमने सुना था,
खाली दिमाग शैतान का घर होता है .
यूँ ही खाली बैठे हाथ मलने से ,
उँगलियाँ चटकाने से क्या जिंदगी का गुज़र होता है.
कोई ना हो काम तो कुछ तो किया कीजिये ,
अरे ! कुछ भी ना हो करने को तो ,
अपनी पुरानी कमीज़ उधेड़ कर सी लीजिये.
काम कोई छोटा नहीं होता ,
निकम्मा बैठना ही बुरा होता है.
बेरोज़गारी की समस्या तो आनादी काल से रही ,
तो अब कौन सी सुधर जाएगी.
जनसँख्या पहले ३० करोड़ थी ,
तब भी रही नौकरी की हाय ! हाय !
अब सवा सौ करोड़ ,तो बोलो नौकरी कैसे समय ?
पहले भी लोग करते थे अपना ही काम -धंदा ,
नौकरी के पीछे तो निकम्मा ही भागता था.
अपना समय गंवाता था,
अपनी शक्ति नष्ट करता था ,और बचा-खुचा पैसा भी ,
भला इसमें किसी का क्या जाता था?
इसीलिए कहते हैं तुमसे हम भइये !
डिग्रियों को रख दो शो केस में सजाकर ,
अपनी शक्ति ,पूंजी और समय की बचत करो .
क्या मिलेगा सरकार से शिकायत करके !
क्या मिलेगा किसी की लल्लो -चप्पो करके ,
अपना काम -धंदा शुरू करो,
सबसे सस्ता ,सुन्दर और टिकायु है पकोड़े बनाने का धंधा ,
जो है जन-जन के मनभावन और स्वादिष्ट भी ,
तुम यूँ करो , गर मेरी मानो तो !
तुम पकोड़े बनाने की दूकान खोल लो.