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22 May 2018 · 1 min read

न थकी हूं मैं नदी हूं

मैं इस शहर की इकलौती नदी हूं

न साल दो साल एक पूरी सदी हूं

चेहरों पर थिरकती रहती हंसी हूं

शहर की तो सबसे बड़ी खुशी हूं

***

शहर मेरे मैं इसके अन्दर बसी हूं

ममता के अटूट रिश्तें मैं फंसी हूं

भूंखी पेट तो अन्दर तक धंसी हूं

कंक्रीट की जंजीरों में तो बंधी हूं

***

मैं बनती रही शरण बेघरों की हूं

हिय भाती जगह मनचलों की हूं

चाहत का किनारा प्रेमियों की हूं

महकती मधुर बेला मिलन की हूं

***

ठहराव चहचहाते पंक्षियों की हूं

ऊंचाई उछलती मछलियों की हूं

बजती हुई घंटियां मन्दिरों की हूं

रोली पुष्प पूजा पुजारियों की हूं

***

हवा में तैरती खुशबु फूलों की हूं

सघन छाया फलदार पेड़ों की हूं

शीतलता बही हुई हवाओं की हूं

बिखरी मस्ती घोर घटाओं की हूं

***

आशाएं दुआएं जीवन भर की हूं

कहानी मुक्ति से मोक्ष तक की हूं

जुगत भूख से रोटियों तक की हूं

कथाएं जनम से मरन तक की हूं

***

हूं अनवरत बहती रही न रुकी हूं

जोर जुलुम के सामने न झुकी हूं

जंग जारी रखती अस्तित्व की हूं

न व्यथित हूं न थकी हूं मैं नदी हूं

***

रामचन्द्र दीक्षित’अशोक’

Language: Hindi
226 Views
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