नफ़रत
इतनी गैरत भरी नज़रो से न देख मौकील,
मुझे इतनी नफरतों से न देख मौकील,
तेरे इत्तिदा के दिन गैर हो रहे है,
मुझे तराश रहे तेरे शहर के हुक्काम।
बड़ी नजाकत ले आए हो आप दर पर मेरे,
इस जीवन की डोर पर कड़वाहटें कई.
क्यों न आप हमे अपना बना लिए कभी,
तेरे दर से जाने का कभी दिल नहीं उम्र.
लगता है , साँझ यही बुझ जाएगी ज़ालिम.
मेरे नज़र के इत्तिदा पर हुश्न तेरा रहा ,
क्यों ये गलियां नफरतों से ताक रही मौकील।
चल एक राह बर्बाद हो रहा ,
बनाने के दिल आबाद हुए ज़ालिम।
उम्र की डोर को धड़कनो से बांधे।
ऐसे न हम बदनाम हुए ज़ालिम.
अवधेश कुमार राय ”अवध ”