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22 Nov 2017 · 1 min read

नज़्म

बह्र -122 122 122 122

यहां आदमी अब खुदा हो रहा है |
जमाना कहां था कहा हो रहा है |

अजब हो गये आज हालात सारे –
यहां शक्स हर बावला हो रहा |

चुभोने को नश्तर झिझकता नहीं है –
जो अच्छा था वो ही बुरा हो रहा है |

हुनर आ गया नफरतें पालने का –
मोहब्बत भरा दिल जुदा हो रहा है |

वही सूर्य है चाँद तारे वही हैं –
मगर क्यों अंधेरा घना हो रहा है |

वो बचपन वो अल्लढ़ जवानी के लम्हे –
खतम प्यार का सिलसिला हो रहा है |

जो अपने थे उनको समझ बैठे दुश्मन –
खबर थी न कुछ भी दगा हो रहा है |

चमक खो रही चाँद तारों की जग में –
अजब धुंध छायी धुआं हो रहा है |

वो रिश्तों की शीतल नमीं खो गयी है –
दिलों में कहीं फांसला हो रहा है |
मंजूषा श्रीवास्तव

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