नज़्म / कविता
अंधभक्तों को समर्पित
अजीब है तेरा हुनर कमाल कर रहा है तू।
सवाल के जवाब में सवाल कर रहा है तू।
अभी तो जीत हार का भी फ़ैसला नहीं हुआ।
अभी से अपनी हार पे वबाल कर रहा है तू।
ग़रीब के दुखों की तुझ को फ़िक्र कब से हो गई।
ग़रीब के दुखों पे क्यों मलाल कर रहा है तू।
हराम और हलाल सब तेरी नज़र में एक है।
तो क्या हुआ हराम को हलाल कर रहा है तू।
ज़मीन अपनी माँ है और ज़मीन को तू बेच कर।
ख़ुदी को इक दलाल की मिसाल कर रहा है तू।
बुराई को भलाई से मिटाएगा तू किस तरह।
बुराई को ही जब के अपनी ढाल कर रहा है तू।
तेरा ग़ुरूर चूर चूर होगा कांच की तरह।
के आम आदमी को अब निढाल कर रहा है तू।
तुझे उखाड़ फेंकने का हो चुका है बंदोबस्त।
के सब को जुमलेबाज़ी से बेहाल कर रहा है तू।
मोहसिन आफ़ताब केलापुरी
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