नोस्टाल्जिया
सोच ता हूँ रोक लूँ
और थाम लूँ
उन उमंग को
उफनती,सुनामी सी
उन सभी तरंग को
जो
कुछ घाटी से आती है
कुछ रेत से
कुछ नशीव से आती है
तो कुछ खेल से।
हर पल
हर छड़
दबाए फिरता हूँ
सीने में बसाए फिरता हूँ
इस अश्क को
इस फितूर को
जो निकलता दिल से है
दूर घटाओं तक जाता है
बारिश बन
फिर मुझमें समा जाता है।
कभी तो बरसेगा
बेख़ौफ़ होकर
यही सोचकर
दौड़ता हूँ दिनभर
बरसात होगी रिमझिम
बहा देगी मिटा देगी
गमो को ,
यही सोचकर
आसामान पर नजर रखता हूँ ।
समय को छोड़ अकेला
वक्त को अपने में समेटे फिरता हूँ ।