नीति बनाम रणनीति
लघुु कथा :
नीति बनाम रणनीति
– आनन्द प्रकाश आर्टिस्ट
‘‘मुबारक हो…, हमने तीनों ही स्थानों पर विजय हासिल कर ली है।’’- उन्होंने पुस्तकालय के दरवाज़े से कहना शुरू किया था और मेरी सीट तक आते-आते मुझसे हाथ मिलाने के लिए अपना दायाँ हाथ मेरी तरफ बढ़ाते हुए एक सांस में पूरा वाक्य कह गए थे।
‘‘धन्यवाद सर! आपको भी मुबारक हो।’’ – कहते हुए मैंने अपनी सीट से उठकर उनसे हाथ मिलाया था और कहा था और साथ ही कहा था-‘‘यह सब आपके प्रयासों का फल है सर!’’
‘‘हाँ, सो तो है, विजय हासिल करने के लिए रणनीति तो बनानी ही पड़ती है।’’ – कहते हुए वह यानी कि मेरे विद्यालय के प्राचार्य चले गए थे पुस्तकालय से बाहर और मैं लग गया था फिर से अपने काम में।
मेरे पास अध्यापन कार्य के साथ-साथ विद्यालय के पुस्तकालय का प्रभार भी अतिरिक्त प्रभार के रूप में है। इसी कारण जब भी कोई भाषण प्रतियोगिता या कविता पाठ प्रतियोगिता होती है, मुझे बच्चों को उनकी ज़रूरत के मुताबिक संदर्भ पुस्तकें उपलब्ध करवानी पड़ती हैं और यदि प्राचार्य महोदय कहते हैं तो उनकी तैयारी भी करवानी पड़ती है। अब जिस प्रतियोगिता के तीनों स्थानों पर विजय हासिल करने का समाचार बधाई सहित वह मुझे देकर गए थे, उसकी तैयारी भी मैंने करवाई थी। पर अंत में इस सफलता के लिए रणनीति बनाने की बात कह कर सच में वह मेरी मेहनत का मज़ाक उड़ा गए थे और रणनीति बनाने के नाम पर सफलता का सारा श्रेय स्वयं ले गए थे।
‘‘खैर कोई बात नहीं, काम चाहे कोई करे नाम तो वैसे भी बाॅस का ही होना होता है।’’-कह कर मैंने अपना मन समझाने की कोशिश की थी कि तभी मस्तिष्क ने एक बहुत पुरानी घटना की फाईल मेरे सामने खोल कर रख दी।
इस विद्यालय में कार्यग्रहण के बाद मैंने पुस्तकालय का प्रभार अतिरिक्त प्रभार के रूप में लिया ही था कि उससे अगले ही दिन यह पुस्तकालय में आए थे। औपचारिकतावश मैं अपनी सीट छोड़कर खड़ा हुआ था और अपना दायाँ हाथ इनकी ओर बढ़ाया था।
‘‘मैं हाथ मिलाने नहीं आया हूँ…।’’ कहा था इन्होंने और मैंने अपना हाथ वापिस कर लिया था।
‘‘आपने पुस्तकालय का चार्ज ले लिया है, अब देखना यह है कि आप इसे किस तरह से मेन्टेन करते हैं।’’- कहा था इन्होंने और चले गए थे।
‘‘छोड़ो सर! ऐसे ही हैं ये।’’ – इनके जाने के बाद पुस्तकालय में मेरी टेबल के सामने बैठी अध्यापिकाओं में से एक ने कहा था।
उस दिन मेरी टेबल के सामने बैठी अध्यापिकाओं में से एक आज भी इत्तफाक से मेरी टेबल के सामने बैठी किसी पुस्तक के पन्ने पलट रही थी। पर आज उसने कहा नहीं था कुछ भी बस मुस्करा कर रह गई थी और अतीत की घटना याद आने पर बिना किसी रणनीति के हासिल हुई अपनी सफलता पर मैं भी मन से हँसे बिना न रह सका था।
मैंने दिमाग़ में आँगन में खुली पुरानी घटना की फाईल को बंद किया और उसके कवर पर नीति बनाम रणनीति शीर्षक लिख कर एक तरफ रख दिया।
– आनन्द प्रकाश आर्टिस्ट,
सर्वेश सदन, आनन्द मार्ग, कोंट रोड़, भिवानी-127021(हरियाणा)