निवर्तमान परिवेश
#विधा – सरसी छंद
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निवर्तमान परिवेश
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विषधर जैसे कुछ मानव हैं, औ है इनका वंश।
चाहे जितना दूध पिला दो, मारेंगे ये दंश।।
बाह्य दिखावा ऐसा जैसे, दिखता सुंदर हंस।
अंतरमन कालीख भरे हैं, जैसे रावण कंस।।
वनिता का सम्मान न करता, है जिसका ये अंश।
ऐसे कुल घालक ही भाई, लेकर डूबें वंश।।
बुरा कर्म करते जाते है, बनकर रहता संत।
जगजाहिर है बुरे कर्म का, होत बुरा ही अंत।।
करो कर्म कुछ ऐसा जग में, द्युति मार्तण्ड समान।
बढें बंश कुल की मर्यादा, जगत मिले सम्मान।।
मनुज रूप लेकर आये तुम, देवो के तुम अंश।
पवनासन बन क्यो देते हो, मानवता को दंश।।
——स्वरचित, स्वप्रमाणित
✍️पं.संजीव शुक्ल “सचिन”
मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण, बिहार