नारी
मैं नारी हूँ
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तुम मुझे विलखता छोड़ गये
सपनों को मेरे तोड़ गये
तुम ही तो एक सहारा थे
तुम मेरे भाग्य विधाता थे
तुम थे जीवन में रौनक था
यह जग तुम से ही रौशन था
किन्तु तेरे बाद भी जिन्दा हूँ
इस जग के खातिर निन्दा हूँ
शुभ कर्मों में मेरी पूछ नहीं
मैं छूत हुई अब अछूत नहीं
मुझसे जग ने मुह फेर लिया
अपनो ने खुद से दूर किया
कहते सब मुझे अभागीन हूँ
बोलो किस कारण पापीन हूँ
है मेरा इसमें दोष हीं क्या?
हमपे जग को क्यों रोष भला
मैं नारी जग में पाप यहीं
क्या नारी को सम्मान नहीं?
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©®पं.संजीव शुक्ल “सचिन”
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