“नारी का एक ये रूप भी”
“नारी का एक ये रूप भी”
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वाह!रब तेरी लीला देखी,अपरम्पार,
नहीं देखना अब मुझे,इसे बारम्बार।
त्रिया चरित्र का नया,रूप देख ली,
जीवन के इस पड़ाव में,चुप रह गयी।
छटपटा रही बहुत,इजाजत नहीं लब को,
क्या-क्या देखी!लगता बता दूँ,यहाँ सब को।
कैसे जोड़ी बना किसी का,घर बसाया गया,
जाने क्या बात हुई,ना ससुराल जाया गया।
माँ-पापा नहीं चाहते,बेटी छोटी शहर जाये,
चाहे क्यों ना लड़के का,परिवार छूट जाये।
शायद!
बड़े शहर का सपना दिखा,बेटी को पाला,
इसलिये खोजा गया,परिवार भोला-भाला।
पकड़ में आ ही गये,एक घर के कर्ता,
गृह क्लेश बहुत हुआ,बेचारा क्या करता।
जानता था,मै एक इज्जत का हूँ पिता,
तो वो तीन का बता,दे दिया बड़ा धता।
हर कार्यक्रम,उसके हिसाब से होने लगा,
दरकिनार किया परिवार,समधन का चलने लगा।
ऐसे कोई रिश्ता,फलता-फूलता नहीं,
जहाँ अपनत्व ना हो,प्यार मिलता नहीं।
ब्याह तो दिया बेटी,बहू बनने ना दिया,
संग दामाद को सबसे,बहुत दूर कर दिया।
दो पाटों में पिस बेचारा,नहीं बना किसी का,
सबसे दूर हो,ना देखा,कभी पल खुशी का।
पति-पत्नी में होते रहते,कई बार खटास,
सब समझे ये प्यार है,जो लाता मिठास।
नहीं पड़े झगडे में बड़े,ना पड़ने दिया गया,
हर फ़ेसले कैसे लिये,पता नहीं चलने दिया।
कभी लोन,तो कभी कर्जदार,बन गया,
चुकाते समय,पिता-भाई खड़ा कर दिया।
गाँव में बता खुद को पत्नी,ससुर आगे की,
छलनी होते बातों से,जैसे पड़ता आग में घी।
एक-एक कर्ज चुकता हुआ,दूरी कम ना हुआ,
परिवार भी एक से तीन,टुकडों में बाँटा गया।
कहीं पति,कही पत्नी,तो कहीं बच्चा रह गया,
टुकडों में बाँट पति को,कहीं का नहीं रखा गया।
मानसिक संतुलन खोया,अच्छा कमाने वाला,
कमाया था अच्छा नाम,मिली साथ डुबाने वाला।
घर की रखी ना घाट की,बीच राह खड़ा की,
नारी का स्थान ऊँचा क्या?बहुत बड़ा की।
परिवार साथ नहीं तो,किसके लिये जियेगा,
बच्चा से बात करने ना दे,कितना दर्द सीयेगा।
खुद को ख़त्म करने को,पेय का लिया सहारा,
खुद को ख़त्म दिया,जो घर का था सबसे दुलारा।
हीरे को काँच बना,ठोकरों पर रखा गया,
जी नहीं,मरकर सबको,असलियत बता दिया।
परदा एक-एक उठ रहा,लगता जैसे मारा गया,
सोंच समझ चली ऐसी चाल,जीवन से हराया गया।
मृत शैया पर पति पड़ा और पत्नी चलती बनी,
लगता सिर्फ नाम की,इसलिये पत्नी बनी।
पल-पल रूप बदलता देख,बहुत बयाँ हो गया,
देखी लोगों को,ऐसे में उन्हें,जरूर हया हो गया।
पिघला नहीं मन,लगता यही चाहती थी सदा से,
मिसाल देखी पत्नी की,भागते देखी बड़ी अदा से।
बच्चा भी ना देख पाया,पापा का अंतिम चेहरा,
अब तक बना रखा गया है,उस नन्हे को मोहरा।
जो पति के दस कर्म तक भी,साथ नहीं निभायी,
पत्नी बन भी मात्र नाम की वो बस पत्नी कहलायी।
कहती गयी-
ज़रूरत पड़ने पर उस लाडो को संदेशा भेज बुलाॐ,
कह-“आजा गोरी दस कर्म में तेरा श्रृंगार उतारूं।”
इतना भी पानी गिरा आँख का,नहीं देखी अब तक,
कितना और कहाँ तक गिरेगी,जाने ये कब तक।
नारी नाम का अपमान,ऐसो ने बहुत कराया है,
नारी ही है जो औरों का,सम्मान बहुत बचाया है।
अब छूट है,कोई रोकने-टोकने वाला,आयेगा नहीं,
सही-गलत का फर्क अब,कोई समझायेगा नहीं
खुलकर जीना,गगन में उड़ना,जी चाहे वो काम करें,
अच्छा ना सही,बुरा ही,जग में ऐसा नाम करें।
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