नाच रहे हैं कान्हा- दाऊ
२०/९/२१
छंद-सार
विधा-गीतिका
१६+१२=२८
अंत में दो गुरु
नाच रहे हैं कान्हा दाऊ,खेल रहे हैं होली।
सॅग में राधा नाच रहीं हैं,नाच रही सॅग टोली।।(१)
रॅग भर-भर पिचकारी मारें,सब हैं रंग बिरंगे,
इंद्रधनुष के रंग बिखेरे,भिगो दयी है चोली।(२)
मटक -मटक कर खेलें होली,ढोल- मृदंग बजाते,
संग साथ हैं गोप गोपियां ,संग राधिका हो ली।(३)
अजब-गजब सी मोहक मूरत,कान्हा- राधा, दाऊ,
कानों में मकराकृत कुण्डल,और भाल पर रोली।(४)
देखि दिव्य दर्शन मोहन के, इंद्र देव हर्षाए,
दाऊ-राधिका पर देवों ने, माल पुष्प की खोली।(५)
लीलाधर की लीला देखो, ग्वालों के सॅग साथी ,
नाच नचावत खेल खिलावत,बन कर के हमजोली।(६)
अटल कहै मैं हुआ वावरा,लखकर ऐसी सूरत,
प्रेम-भक्ति के रस में रॅग दो,भर दो मेरी झोली।(७)