*”धुँआ ही धुँआ”*
“धुँआ”
सुलगती हुई ये आग की चिंगारी ,
चहुँ ओर उठता हुआ धुँआ ही धुँआ।
राख के ढ़ेर पे बैठा हुआ इंसान ,
काली खींचती लकीरों सा उड़ता हुआ धुँआ ही धुँआ।
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नकाबपोश चेहरों में छिपा हुआ ,
अदृश्य शक्ति हर तरफ बस धुँआ ही धुँआ।
बुझा बुझा सा शहर सूनी सड़कें ,
कोई जल खाक हो कहीं सुलगता हुआ धुँआ ही धुँआ।
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वक्त थम गया कदमों के निशान ,
ढूंढता धुंधली यादों का सफर धुँआ ही धुँआ।
संघर्षो से जूझता उतार चढ़ाव ,
गिरते सम्हलते हुए झेलता रहा धुँआ ही धुँआ।
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औधोगिक कारखानों की चिमनी से,जहरीली गैसों का रिसता धुँआ ही धुँआ।
रेलगाड़ी बस कार गाड़ियों से,
उड़ता हुआ काला धुँआ ही धुँआ।
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वो सिगरेट पीने वाले नशा करते हुए, यूँ ही उड़ाते रहे धुँआ ही धुँआ।
चूल्हे पर चाय के तपेली केतली से ,निकलता धुँआ ही धुँआ।
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खिडकियों की कांच चश्मों के कांच में झांकता हुआ धुँआ ही धुँआ।
वो कचरों की ढेर पर सुलगता हुआ आँखों में चुभता हुआ धुँआ ही धुँआ।
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उलझती सी जिंदगी संवारती ,
भूली बिसरी यादों का धुँआ ही धुँआ।
काली लकीरों का कालिमा प्रदूषण रहित ,धरती को स्वर्ग बनाये ना रहे कहीं भी धुँआ ही धुँआ।
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शशिकला व्यास✍️