धीरे धीरे
भोर की चादर से निकलकर
शाम की और बढ़ रही है जिंदगी धीरे धीरे !
योवन से बिजली सी गरजकर
बरसते बादल सी ढल रही है जिंदगी धीरे धीरे !
खिलती है पुष्प सी महकती है
फिर टूटकर बिखरने लगती है जिंदगी धीरे धीरे !
संभाल सके इसको गिरने से
जुस्तजू में सिमट गए कितने जुगनू धीरे धीरे !!
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!—:: डी के निवातिया::—