धर्मांधता
उन्होंने तो सिर्फ बीज फेका था,
धर्मांधता का,
उर्वरक जमीन देख कर,
पागल तो हम स्वयं हुए थे,
अपने मन कि उर्वरक जमीन दी,
अपने सहमति का शीतल जल दिया,
भवनाओं का खाद दिया,
आस्था का सुनहरी धूप दिया,
अब वो पेड़ विशाल हो गया है।
फूल नहीं उगते उस में,
कांटे, बंदूक -पिस्तौल, और आग उगते हैं,
अब कहाँ फेकोगे अपनी फ़सल
अपनों पे ही तो आज़माना होगा,
आज़मा भी तो रहे हो ?
शत्रु बाहर नहीं तुम्हारे अंदर ही छिपा बैठा है,
या बैठाया गया है,
अब उसे पालना है, पोशक आहार दे के
या खदेरना है तुम्हारी मर्ज़ी,
नर्क और स्वर्ग तो अंदर ही है
बाहर कब तक ढूढोंगे,
बाहर तो बस तुम्हारे अपने हैं
जो प्यार के भूखे हैं,
सदा -सदा से
***
15 /12 /2018
मुग्धा सिद्धार्थ