धरती और आकाश का मिलन
आकाश की विरह वेदना जब हद से बड़ी ,
प्रवाह बन अश्रु धारा नयनों से बही ।
दुनिया ने जिसे बरसात समझा।
विरह वेदना अपनी प्रेयसी धरती की ,
मगर कौन समझे भाषा ये मूक प्रेम की ,
मगर धरती ने ही उसे समझा।
पूछा अपने प्रियतम से ,ये अश्रुजल किसलिए?
मैं तो दुखित हूं ,व्यथित हूं ,कुंठित हूं ,मानव द्वारा,
मगर तुम रोते हो किसलिए ?
मेरे दुख को क्या तुमने समझा ?
मैं तो रो नहीं सकती ,केवल आहें भर सकती हूं,
मुझमें भरी क्रोध की आग ,बस आग उगल सकती हूं ।
किसी भी दिन विस्फोट हो सकता है ,
मगर मूर्ख और स्वार्थी मनुष्य जिसे नहीं समझा।
आकाश ने कहा सुनो प्रिय !
तुम्हारे दुख से मैं दुखित हुआ ,
इसीलिए मैं रोया।
तुम क्यों सहती हो इतना अत्याचार,शोषण व् दोहन ,
इसीलिए मैं रोया ।
तुम छोड़ के सबकुछ मेरे पास क्यों नहीं आ जाती ?
ऐसी स्वार्थी ,लालची और कृतघ्न संतान के मोह
पाश से क्यों बंधी हुई हो ?
त्याग क्यों नहीं कर देती सब का ?
तुम्हारी दयनीय हालत देखकर रोता हूं ।
तुम छोड़ दो सबको ,और आकर मुझमें मिल जाओ ।
जिन्होंने कभी तुम्हें कभी मां ना समझा।
धरती ने कहा ” मैं भी मिलना चाहती हूं तुझमें ,
मगर मैं क्या करूं ?
मां हूं ना आखिर ,अंतिम अवसर तक प्रतीक्षा कर रही हूं कभी तो सुधरेगा !
फिर तो प्रलय होगी ,तो मानव दंड भुगतेगा ही ।
तभी हमारा भी मिलन हो जायेगा ।
यूं तो मिलते हैं क्षितिज में ,
मगर उससे संतोष नहीं होता ।
मगर मैं क्या करूं मेरे प्राण नाथ !
प्रेम में ह्रदय सब्र और मर्यादा नहीं खो सकता।
मैंने सदा अपने प्यार को पूजा समझा।
तुम व्यर्थ में मत अश्रु बहाआे ,
मेरा मन और व्यथित होता है ।
ईश्वर पर भरोसा रखो तुम ,
उसी के अधिकार में सब कुछ होता है ।
वही हमारा कल्याण करेगा ,
जो सबका कल्याण करता है ।
अंत में हमारे प्रेम की जीत होगी ,
यह हमारा ह्रदय जानता है।
मुझे विश्वास है ईश्वर पर ,अपने अमर प्रेम पर ,
जो संसार की सबसे महान गाथा है।
जिसे केवल दिलवालों ने ही समझा।