देश किसानों का है ।
देश है किसानों का
इसको किसानों ने बनाया है
सींचा है इसको पसीने से
इसकी नींव में
खून किसानों ने बहाया है ।
खड़े किए हैं किले-महल
इसके सीने पर
उद्दोग धंधे चल रहे हैं
शस्य पैदावार पर ।
कहता है मनु
जिसका हल धरती उसकी है
ये नेताओं की नही
हलधर के पुरुखों की जमीन है ।
ना समझ जीत लिया
तूने अंगूठों को
एकलव्य नही है
जो सौप दें गुरु दक्षिणा में
तुझको अंगूठों को ।
ये जीत है केबल
पाँच वर्षों की
क्यूँ घमण्ड से अकड़ा है
ये कुर्सी नही पाँच जन्मों की ।
आजादी की लहर तूने नही
पुरुखों ने बहाई है
जनतंत्र देश की इक्षा है
ये ना तेरी लुगाई है ।
हल खींचता है किसान
रस्सी पकड़कर बैलों की
निकालता हैं दाने
तृप्त करने आत्मा
तुझ जैसे एहसान फरामोसों की ।