दृष्टि से गिरे,नहीं उठ पाओगे
दृष्टि से गिरे,नही उठ पाओगी
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गिराने वाला कभी उठता नहीं
गिराए गए हो तो उठ जाओगे
गैर नजरों का भी श्रृँगार बनो
दृष्टि से गिरे, नहीं उठ पाओगे
अपने तो आतुर है झुकाने को
बचें उनसे,ना खड़े हो पाओगे
पग पग पर राह है काँटो भरी
जहां में फूल कहाँ ढूंढ पाओगे
दो मुंही दुनिया विश्वासघाती है
विश्वास नहीँ तुम जीत पाओगे
बेगैरत बेइंतहा बढ़ती जा रही
प्रतिष्ठित जन नहीं ढूंढ पाओगे
सेंधमारी से रिश्ते चूर चूर हुए
टूटे रिश्ते नहीं जोड़ पाओगे
द्वेष,ईर्ष्या,मोह,क्रोध भारी हुए
प्रेम तरानों से ना मिल पाओगे
सुखविंद्र वक्त है पहचानो तुम
कहानी में ढूंढते रह जाओगे
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)