दुर्योधन का अंतर्द्वंद
कोशिशें थी लाख मेरी
कुछ रही होगी कमी
आज भी वहीं पर खड़ा हूँ
जो रही शुरुरात थी ।
ये इमन्तिहान आसान नही था
मन को पकड़कर सोचना था
निस्पक्ष होकर, सत्य लेकर
पाने के लिए लालसा को खोना मुझे था ।
किन्तु मैं नही तैयार था
सुनने न्याय के परिणाम को
पाताल में आज छुपकर सुन रहा हूँ
कुरुक्षेत्र में गरजते काल की हुँकार को ।
मैं लालची, मैं स्वार्थी
मैं शक्तिहीन, कमजोर था
भाग रहा था उस सत्य से
जिसे होना मेरी तकदीर था ।
शांति सभा में गर्जन हुआ था
बिजली ने भी दिया था संकेत
बन रहा तू धूल रणक्षेत्र की
खो देगा जीवन और समस्त प्रदेश ।
नियति का संकेत अनसुना कर
अहंकारी नासमझ में हो गया
धिक्कारता हूँ अपने इस जन्म को
क्यों किया मैने परम् ब्रह्म को अनदेख.?
वीरों की आहुति दे रहा था
अन्याय अहम के यज्ञक्षेत्र में,
और पताका फहरा रहा था
कूटनीतिक से रचे कुरुक्षेत्र में।
अब कायर बनकर मैं छुप गया हूँ
पाताल की इस कोख में
अनर्थ के रास्ते बनाकर
चौसर-पासे के उस खेल में ।
अहम मेरा विराट था, अन्याय से
मैं बनने चला सम्राट था
अब बचा क्या शेष है
रक्त रंजित कुरुक्षेत्र है ।
युधिष्ठिर मुझे दया दो
याचक को दो अभय दान
नही चाहिए साम्राज्य
और राज-पाट का अभिमान ।
अनुताप है हर बात का
और किए अन्याय का
मैं शक्तिहीन असहाय हूँ
धर्मराज मैं भी तुम्हारा परिवार हूँ।
छल कपट मैंने किया था
अनीति को भी घर दिया था
स्वीकारता मैं आज हूँ
धर्मराज मैं भी तुम्हारा परिवार हूँ ।
नहीं नहीं, अब नही होगा
शत्रु के आगे पश्च्याताप मेरा
कायर स्वार्थी गर मैं हुआ तो
जीवन पूर्णतः धिक्कार होगा मेरा।
क्या जबाद दूंगा स्वर्ग में बैठे करण को..?
योग्यता का प्रदर्शन देखते गुरु द्रोण को..?
सैया पर लेटे गंगापुत्र पितामह भीष्म को..?
मेरी विजय पर न्योछावर होते पिता धृतराष्ट्र को..?
क्या कहूँगा टूटी पड़ी कटारों से..?
सैनिको की बिखरी पड़ी तलवारों से..?
रोदन करती असंख्यों विधवा- रांडों से..?
अनाथ हुए कुरु साम्राज्य के नौनिहालों से..?
कि अब कुरुराज दुर्योधन बदल गया
न्याय-अन्याय का पाठ समझ गया
जो हुआ वह विधाता की रचि अनियति थी
क्षमा करो मुझे कुरुवंशियो यह भी एक नियति थी।
नही नही…कदापि नही..कदाचित नही…
मृत्यु तक मैं शत्रु से लड़ता रहूंगा
मृत्यु डर से शत्रु से ना जीवन दान लूंगा
मैं पुत्र हूँ,शिष्य हूँ, मित्र हूँ वीरों का
खड्ग तपस्या से वीरगति को नमन करुंगा ।
भविष्य मेरा अश्रुपूर्ण होगा
जीवन मेरा होगा बेकार
स्वीकारुंगा ना हार को
जिसके लिए मैं नही तैयार।
वीरता से अब मैं लड़ूंगा
योद्धा बन ना छल करूँगा
हर वार को शस्त्र की हर धार को
माँ से मिले आश्रीवाद से सीने पर सहूँगा ।
आकाश देखेगा मुझे
पृथ्वी भी साक्षी बनेगी
मैं मित्र हूँ वीर कर्ण का
शिष्य हूँ बलराम,गुरु द्रोण का ।
जो हुआ सो हो गया
अब ना कदम पीछे रखूंगा
अधर्म के लिए पस्च्याताप है
किन्तु वीरता को ना निर्लज्ज करूँगा।
छल कपट मैंने किया था
न्याय के हर क्षेत्र में
छल कपट मेरे साथ हुआ है
रणभूमि कुरुक्षेत्र में ।
रक्त रंजित माटी कुरुक्षेत्र की
सन्देश होगी भविष्य नींव की
अहंकार से अन्याय से दुर्योधन जो बनेगा
कुरुक्षेत्र खुद को सज्ज कर भस्म उसको करेगा ।