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28 Mar 2019 · 1 min read

दीप और बाती

लौ
उसकी
यूँ देखी इठलाती
तो पूछा उठा दीप
री बाती
तू क्यूँ इतना इतराती
श्रयण तो दिया है मैंने ही
तुझे अपने अंतस में
वरना
तेरा क्या मोल
वर्तिका कुछ झूमी
किया नर्तन कटि बलखाई
तनिक विहंसि और
जोर से जगमगाई
बोली
रे दीपक सुन
यह विस्तीर्ण शुभ्र उजास
है देख रहा
तू चाहे तेल में जाए डूब
या सारा तेल
हो जाए तुझमें समर्पित
किन्तु
बिन मेरे साथ के
क्या तुम में है इतना दम
जो रोशन कर जाए घर को
मैं
करती हूँ त्याग
जलकर
देती हूँ समर्पण मिटकर
तभी
हो पाता विनष्ट अंधकार
तू भी छोड़ अंह
रह खुशी खुशी मेरे संग
कर प्रदीप्त
प्रकाश का संसार।

रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
©

Language: Hindi
227 Views
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