दाँव चलने की तुम ख़ता न करो
दाँव चलने की तुम ख़ता न करो
कोई उकसाए तो सुना न करो
है न तक़रार कोई भी अच्छी
बेवज़ह बात को बड़ा न करो
मंज़िलें मिल भी सकें नहीं भी मिलें
पर ऐसा कि हौसला न करो
इससे अच्छा है दोस्त हो न कोई
दोस्ती ग़र करो दग़ा न करो
दौड़ जाती है एक बिजली सी
जिस्म मेरा कभी छुआ न करो
मायने लोग दूसरा लेंगे
बेतक़ल्लुफ कभी हुआ न करो
बिन तेरे ज़िन्दगी मैं जी लूँगा
इस तरह की तो कल्पना न करो
ख़ार ‘आनन्द’ और हैं पत्थर
बन्द आँखों से तुम चला न करो
– डॉ आनन्द किशोर