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30 May 2020 · 1 min read

तोड़िए नहीं, जोड़िए

जातिवाद, स्वयं को सामाजिक कहने वाले तर्कशास्त्री, विभिन्न तर्कों (कुतर्कों) के माध्यम से इसे तर्कसंगत तो सिद्ध कर सकते हैं परंतु जहां तक मैं समझता हूं, विधि संगत तो नहीं हो सकता क्योंकि इस जातिवाद से ही ऊंच-नीच, भेदभाव की भावनाएं जन्म लेती हैं । जो गैरकानूनी है , वह अनैतिक भी है और जो अनैतिक है वह सामाजिक कैसे हो सकता है अर्थात जातिवाद सीधे-सीधे अर्थों में असामाजिक है।
अब वर्मा जी को ही ले लीजिए ; अपने सरल स्वभाव से, सहज भाव से स्वीकारते हैं कि जाति स्तर में वह शर्मा जी से निम्नकोटि के हैं, अर्थात शर्मा जी को स्वयं से ऊंचा मानते हैं, साथ ही यह भी कहते हैं कि वह कुर्मी बिरादरी के वर्मा हैं जो कि क्षत्रिय वर्ण के अंतर्गत आने चाहिए अतः अन्य वर्मा अर्थात किसान आदि उनसे नीचे हैं। इस तरह से स्वयं के अंदर उच्च होने की भावना भी धारण करते हैं।यह ऊंच-नीच वास्तव में मनुष्य ने स्वयं उत्पन्न किया है। और यह सब करके भी मनुष्य स्वयं को सामाजिक प्राणी कहता है यही विडम्बना है। जरा सोचिए आपका जो कृत्य समाज के लोगों में भेदभाव की भावना उत्पन्न करके, उनका स्तरीकरण करके, उनमें दूरी बनाकर मनोभावों में खटास पैदा करने का कार्य करे, ऐसा कृत्य आपको सामाजिक कहलाने का अधिकार कैसे दे सकता है?

संजय नारायण

Language: Hindi
Tag: लेख
6 Likes · 207 Views
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