–तुम सामने बैठी रहो–
तुम सामने बैठी रहो मैं लिखता रहूँ।
तुम कुछ कहो मैं भी कुछ कहता रहूँ।।
हृदयतल में सुगंधी बनके बिखर जाओ।
मैं पुष्प बन सुंदर सुघर खिलता रहूँ।।
प्रभात-सूर्य-किरणों-सी सौंदर्य पूर्ण हो।
प्रेम – धूप में फलता- फूलता रहूँ।।
चन्द्र-सी हृदय-नभ में चमका कीजिए।
मैं चाँदनी पाता चंचलता रहूँ।।
कभी जगत् की भीड़ में खोना न भूल से।
मैं तेरी रुह में यूँ उतरता रहूँ।।
तुम हृदय के प्रथम और अंतिम अतिथि हो।
स्वागत उम्रभर ही मैं करता रहूँ।।
तुझे चाहकर किसी को न चाहूँ मैं कभी।
तेरे लिए ही जीता मरता रहूँ।।
राधेयश्याम बंगालिया “प्रीतम”
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मात्राएँ…23—20