ढाबा
गया मैं ढाबे पर पूछा उससे
खाना है क्या?
वो बोला हाँ।
मैं पूछा कैसे खिलायेगा
बोला जैसे तूं खायेगा
वैसे हम खिलायेगा।
बोला मैं
भाई बीगड़ता क्यों है
मैने तो बस रेट पूछा
बोला ; तो मैने बोला
कुछ दूजा
तू जो खायेगा, वहीं खिलाऊंगा्
आखिर उसके बाद ही तो
जो बनेगा वो बताऊंगा।
मैने कहा
भाई पैसे कम है
भूख लगी है
और हालत बेदम है
अब तू ही बता
बीना रेट जाने, कैसे मैं खाऊं
अगर ज्यादा का खाया
तो फिर, कैसे चूकाऊं।
बोला मसला गम्भीर है
तूं लगता गमगीन है,
कुछ न कुछ, सोचना पड़ेगा
वर्ना खाना चट कर
पक्का तूं लड़ेगा।
वो बोला,
एक काम कर
मैने कहा, क्या कर।
बोला पैसे कितने है बता
मैने कहा पहले मिनू तो दिखा।
बोला छोड़ मिनू
जो खायेगा खिलाऊंगा
गर पैसे कम पड़े
तो बर्तन धुलवाऊंगा।
वो बोला ,
बोल क्या कहता है
मैने कहा
खाने के बाद होस कहा रहता है।
वो बोला
खाने में ऐसा क्या है जो लुढक जायेगा्
मैने कहा
अरे भाई खाने के साथ
पीना तो पड़ेगा
पीने के बाद
होस गुम जायेगा
फिर बर्तन कैसे धूल पायेगा।
खीझ कर बोला
ढेबुआ नही और पीने की बात करता है
मुझे तो तूं कमजर्प कमीना लगता है।
मैने कहा,
जो कहना कहले
बस खाना खिलादे
खाने के बाद
थोड़ा सा पीला दे।
जीवन भर तेरा एहसान मानूंगा
और एक जनम क्या
अगले कई जनमों तक
तुझे सरीफ इंसान मानूंगा।
बोला, तू सरीफ माने न माने
फर्क नहीं पड़ेगा
बीना दिये पैसे
तेरा दाल नहीं गलेगा।
©®पं.ससंजीव शुक्ल “सचिन”
2/2/2017