“डाकिया”
कया ओ भी दीन थे,
जब चिठ्ठीया लेकर आता था.
खाकी कपडे पहण के
जब डाकीया आता था…
रास्ते पे आँखे बीछाके,
जब उसका ईंतजार होता था.
सायकल पे अपने जब डाकीया आता था,
खुशिके मारे सबके आँखो मे आन्सू आता था…
कडी धूप मे हर घर जाके,
तुटी हुई चप्पल से चीट्ठीया बाटता था.
थैले से अपने मनी ऑर्डर देके,
सामने वाला डाकीया को सिने से लगता था…
कीसी को चिठ्ठी पडाके,
तो कीसी को लीखके देता था.
खुद तकलिप पे रहकर,
सबके जिवण मे खुशीया बाटता था…
चिठ्ठीया सुनेहरी होती है,
हर रिश्ता बयान करती है.
उनसे दूर होके भी,
पास होनेका एहसास दिलाती है…
चिठ्ठीया जिवण मे रंग भरती थी,
सरहदो पर जाके जवान चिठ्ठीया पडणे बाद.
उनके आँखो मे आन्सू आ जाते थे,
सभी चिठ्ठीयो को अपने सिने से लगाते थे…