डरावना बचपन
कविता …… डरावना बचपन
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बाप की गरीबी में
मां की बीमारी में
हाथों की लकीरों में
खो गया
बचपन कहीं …..….
भूख से लड़ना पड़ा
खुद से भी भिड़ना पड़ा
और फिर काम पर …..
चल पडा
बचपन मेरा ……….
भूख यू बढ़ती रही
फिक्र भी बढ़ती रही
जिम्मेदारियों की सीडीयां
चढ़ता रहा
बचपन मेरा ………..
खेल ना कोई खेल सका
मेल ना किसी से कर सका
दोस्त क्या होते हैं
समझ ना सका
बचपन मेरा ………
कूड़े के ढेर से रोटियां चुन्नी पड़ी हाथों की लकीरें भी
मुझको फिर गिन्नी पड़ी
खाना फेंकने वालों को देखता रहा
बचपन मेरा……….
बाल दिवस खूब मने
मजदूर दिवस खूब मने
हर तरफ इस शोर में खोता रहा
बचपन मेरा ……….
नाव कागज की कभी
मैं चला पाया नहीं
गिल्ली और डंडे को मैं
आपसे में लड़ा पाया नहीं
गेंद की तरहा पल पल पिटता रहा
बचपन मेरा ………
देखता हूं जब कभी खेलते बच्चों को मैं
मेरा भी मन करता है
मैं भी खेलू साथ में
मां की बीमारी को देख
रोता रहा
बचपन मेरा ……..
भूख बचपन खा गई
घोर उदासी छा गई
जिम्मेदारी के तले
दब गया
बचपन मेरा ………।।
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प्रस्तुत रचना ….रचनाकार की मूल व अप्रकाशित रचना है
डॉ. नरेश कुमार “सागर”