टूट कर आज वो आइना रह गया
—— ग़ज़ल ——
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दर्द का जीस्त में सिलसिला रह गया
ज़ख़्म का मुँह अभी तक खुला रह गया
सच की सूरत को देखा था जिसमें कभी
टूट कर आज वो आइना रह गया
कितने खुदग़र्ज़ हैं ये मरासिम सभी
चोट खा कर के मैं सोचता रह गया
सबकी नज़रों में हम तो गुनहगार थे
वो जहां में मगर पारसा रह गया
जब मिला सच परेशां मिला है मुझे
क्या यही ज़ीस्त का फ़लसफ़ा रहा गया
दो किनारे नदी के बने इश्क़ में
इसमें सदियों का इक फासला रह गया
दर्द आहो-फुगां बेकली तीरग़ी
दिल में “प्रीतम” मेरे और क्या रह गया
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)
22/01/2018