टूटकर बिखरना अब तज भी दो यार…
टूटकर बिखरना अब तज भी दो यार…
खिलकर सिकुड़ना अब छोड़ो भी यार…
कैसी टूटन कैसी उदासी अब खुद से…
जो रख न पाया ख्याल तुम्हारा…
जो छू न पाया मन तुम्हारा…
जिसने जाना भी नही तुमको तुणीर भर…
फिर क्यों बहावो ये अश्रु नीर तुम…
क्यों करो फिर खुद को अधीर तुम…
जो गया उसे जब न थी महत्ता तुम्हारी…
उसे न थी जब कोई परवाह तुम्हारी…
न होवो विकल न रहो खुद से मौन…
फिर से जीवंत हो उठो…
खुद में फिर खिलखिला उठो…
महकने दो खुदी को…
खुद के जीवन को फिर स्वर दो…
न मनाओ अफ़सोस और न टूटो खुद से…
ये टूटना ये बिखरना सब छोड़ दो तुम मन से…
शक्ति हो तुम यार जीवन को फिर सृजन दो…
✍कुछ पंक्तियाँ मेरी कलम से : अरविन्द दाँगी “विकल”