जुबां पर ताले ( ग़ज़ल)
कहने को तो लब हमारे आज़ाद है,
मगर जुबां पर तो ताले लगे हैं.
अपने जज़्बात बयां नहीं कर सकते ,
जो अब दिल में ही घुटने लगे हैं.
कलमें कभी उगलती थी आग भी ,
इसके भी शोले अब बुझने लगे हैं.
ऐसे संगीन माहौल कला भी कैसे बोले ,
उसके गले पर भी खंजर लगे हैं.
हर शाख पर उल्लू हैं कोयल हैकहाँ ?
बोलेगी भी!,जबसे उल्लू बोलने लगे हैं.
नइंसाफी या कोई ज़ुल्म हो रहे है हर सु,
चूँकिअदालत में इन्साफ भी बिकने लगे हैं.
जुबां खोलने का हक बस रसूखदारों को है ,
ताकत औ दौलत के दम पर पर छाने लगे हैं.
ताकत /दौलत पे सियासत कुर्बान हो गयी,
सत्ता की खातिर वोट के भाव लगने लगे हैं.
अब बताओ ! कैसे कहोगे की आज़ाद हैं,
नहीं जनाब ! हमारे लबों पर ताले जड़े हैं.