Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
19 Nov 2017 · 7 min read

जीवन संघर्ष

मेरी यह कहानी राजस्थान पत्रिका में 19.8.2015 को प्रकाशित हो चुकी है।
बाबूजी नहीं रहे। मुझे अभी तक विश्वास नहीं हो पा रहा है। यूं लग रहा है, मुझे परेशान देख वह अपनी मधुर, स्निग्ध मुस्कान के साथ अभी मेरे सामने आकर खड़े हो जाएंगे और कहेंगे, ‘अरे बेटा, किसी भी परेशानी से घबराना नहीं चाहिए। उसका डटकर मुकाबला करना चाहिए। परेशानी खुद-ब-खुद राह दे देगी।’
लेकिन क्या बाबूजी खुद अपने जीवन में परेशानियों का डटकर मुकाबला कर पाए? वह तो जीवनभर संघर्ष करते रहे स्वयं अपने आपसे, अपने परिवार वालों से और समाज के बनाए गए खोखले जीवन-मूल्यों से।
लेकिन इस संघर्ष के बदले में उन्हें मिला क्या? सिवाय अपने परिचय क्षेत्र में थोड़े से सुयश, कीर्ति और नाम के। पुलिस विभाग जैसे प्रभावशाली महकमे में सरकारी वकील के पद पर कार्यरत थे बाबूजी, लेकिन भ्रष्टाचार, रिश्वत के लिजलिजे, रेंगते कीड़ों से आक्रान्त उस प्रभावशाली महकमे में बाबूजी अपने आपको इन सबसे अछूता रख पाए थे, सिर्फ अपने ऊंचे आदर्श मूल्यों तथा दृढ़ चारित्रिक बल के दम पर।
बाबूजी के मुंह से ही सुना था, दादाजी एक छोटी सी जमींदारी संभालते थे। लेकिन तिकड़मी बुद्धि कौशल तथा चातुर्य के बल पर छोटी सी जमींदारी के सहारे उन्होंने यथेष्ट धन कमा लिया था। बाबूजी जैसे-जैसे बड़े हुए थे, उनके कानों में दादाजी के अपनी रैय्यत के प्रति अनाचार और अन्यायपूर्ण रवैये की छुटपुट खबरें पड़ती रहती थीं और शायद इन्हीं सबकी वजह से शुरू से ही बाबूजी के मन में सामंती मूल्यों के प्रति असंतोष का अंकुर फूट निकला था। समाज की इन विसंगतियों तथा विषमताओं के विरुद्ध प्रभावशाली आवाज उठाने के लिए उन्होंने वकालत का मार्ग अपनाया था।
यह बाबूजी का दुर्भाग्य ही था कि जिन व्यक्तिगत मान्यताओं तथा मानदंडों की वजह से सामाजिक दायरों में उन्हें अपूर्व मान-प्रतिष्ठा मिली, उन्हीं सिद्धांतों के चलते उन्हें स्वयं अपने ही घर में निरंतर उपेक्षा, अवमानना सहनी पड़ी। इसका कारण था मां और बाबूजी की विचारधारा में मूलभूत विरोधाभास। मां के पिताजी यानी मेरे नानाजी एक प्रतिष्ठित डॉक्टर थे। इसलिए शुरू से मां हर प्रकार के सुख-सुविधापूर्ण वातावरण में पल कर बड़ी हुईं थी।
मां-बाबूजी के विवाह के महीने भर बाद ही दादाजी की मृत्यु हो गई थी। इसलिए उनकी मृत्यु के उपरान्त दो छोटे भाइयों और चार कुंवारी बहनों का भार बाबूजी पर आ गया था। शादी के फौरन बाद मां की कच्ची, अपरिपक्व समझ इन जिम्मेदारियों के बोझ से जैसे असमय ही कुंठित हो गई थी। बाबूजी की सरकारी नौकरी की बंधी बंधाई तनख्वाह ही इतने बड़े परिवार की इकलौती नियमित आय थी और इन संघर्षपूर्ण परिस्थितियों का मां सफलतापूर्वक सामना नहीं कर पाई थीं। इन सबका सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ा था मां-बाबूजी के दांपत्य जीवन पर। बाबूजी चाहते तो रिश्वत की ऊपरी आमदनी से इस धनाभाव को मिटा सकते थे। शुरू से ही बाबूजी सरकारी कॉलोनी में रह रहे थे और मां जब कॉलोनी में रहने वाले बाबूजी के सहकर्मियों के घरों के शान-शौकत भरे रहन-सहन को देखतीं तो अपने अभावग्रस्त जीवन के प्रति उनके मन का उत्कट आक्रोश, क्रोध, कटुवाक्यों और तानों, उलाहनों के रूप में बह निकलता। उन्हें सबसे बड़ा दुख इस बात का था कि जहां बाबूजी के अन्य सहकर्मी मांग-मांग कर रिश्वत लेते थे, बाबूजी घर आई लक्ष्मी तक को ठुकराने में भी संकोच नहीं करते थे।
ऐसी ही एक घटना मेरे स्मृति पटल में आज भी जीवन्त है। कुछ लोग बाबूजी के कार्य के प्रति सराहना स्वरूप असली घी के तीन पीपे घर पर रखवा गए थे। शाम को दफ्तर से लौटने पर जब बाबूजी को इस बात का पता चला था, वह मां पर बहुत बिगड़े थे, ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई इन पीपों को रखने की? मुझे भूखा रहना मंजूर है, लेकिन ईमान बेचना हर्गिज मंजूर नहीं।’
इधर, दीदी उम्र के २७ बसंत पार कर चुकी थीं, कई जगह उनके रिश्ते की बात चली थी, लेकिन हर जगह दान-दहेज पर बात आकर अटक जाती थी।
एक दिन नेहा दीदी के कार्यालय में कार्यरत उनके अविवाहित बॉस शिशिर के घर से नेहा दीदी के लिए रिश्ता आया था। शिशिर की मां रिश्ता रोकने के दस्तूर के तौर पर दीदी को हीरे की अंगूठी पहना गई थीं और बाबूजी ने शगुन के रूप में पांच हजार एक रुपए शिशिर के हाथ में देते हुए रोके की रस्म पूरी कर दी थी।
फिर अगले रविवार को ही शिशिर के माता-पिता शादी की तारीख और अन्य व्यवस्थाओं आदि की बातें तय करने घर आए थे। शिशिर के पिता ने बाबूजी से कहा, ‘उपाध्यायजी, आपके दिए सुसंस्कारों की अनमोल थाती के साथ जब आपकी बेटी हमारे घर आएगी, हमारे घर में उजियारा हो जाएगा। हमें दहेज के नाम पर एक रुपया भी नहीं चाहिए। बस, हम चाहते हैं कि विवाह का प्रीतिभोज आप शहर के किसी भी पांच सितारा होटल में दें। हमें अपनी बहू के लिए हीरों का एक सैट जरूर चाहिए और हम चाहते हैं कि आप उसे एक बड़ी कार दें।’
यह सब सुनकर बाबूजी का चेहरा घोर संताप से मलिन हो उठा था और तनिक लडख़ड़ाती जुबान से उन्होंने शिशिर के पिता से कहा था, ‘शर्माजी, हमारे धन्य भाग्य कि आप जैसे ऊंचे खानदान के लोगों ने हमारी नेहा को अपने घर की लक्ष्मी बनाने के लिए चुना, लेकिन शर्माजी, मैं विवाह का प्रीतिभोज पांच सितारा होटल में किसी हाल में नहीं दे पाऊंगा। न ही बड़ी गाड़ी और हीरों का सैट दे पाऊंगा।’
लेकिन जवाब में शर्माजी ने हाथ जोड़ते हुए पिताजी से कहा था, ‘उपाध्यायजी, अगर आप हमारे स्तर की शादी नहीं कर सकते तो मुझे क्षमा कीजिए।’ यह कहकर सभी मेहमान उठकर चले गए थे, लेकिन अपने साथ ले गए थे घर भर की खुशियां। सारे घर में मायूसी छा गई थी और मां को एक मौका और मिल गया था बाबूजी को जलील करने का इस मुद्दे पर। इस प्रसंग के बाद घर भर में बेहिसाब बेबसी और हताशा भरा सन्नाटा पसर गया था।
उस दिन रात को कुछ हलचल सुनकर मैं उठ बैठा था। मैंने देखा था, बाबूजी सुबकियां भर-भर कर रो रहे थे। मैंने उनकी पीठ सहला हिम्मत बंधाने की कोशिश की थी, ‘बाबूजी, आप इतना निराश क्यों हो रहे हैं। कोई न कोई लडक़ा मिलेगा ही दीदी के लिए और फिर दीदी नौकरी तो कर ही रही है। सब ठीक हो जाएगा।’
बाबूजी ने कहा था, ‘बेटा, जिंदगी भर संघर्ष करते-करते मैं थक गया हूं। अब तो इच्छा होती है कि सब कुछ छोड़-छाड़ कर मैं कहीं चला जाऊं।’
पूरी रात मेरी आंखों ही आंखों में बीती थी। मैं बस यही सोचता रहा था सारी रात, कि क्या इस दुनिया में ईश्वर सबके साथ न्याय करता है?
और बस अगले दिन तो गाज गिर ही पड़ी थी। सेवानिवृत्ति के बाद से बाबूजी स्वतंत्र रूप से वकालत करने लगे थे। उस दिन नौ मुकदमों की तारीखें पड़ीं थीं। शाम को कचहरी से वापस आते ही बाबूजी को अचानक दिल का दौरा पड़ा था और डॉक्टर के आने से पहले ही बाबूजी हमें छोडक़र चले गए थे, अपनी अनंत यात्रा पर।
बाबूजी की मृत्यु के महीने भर बाद ही हमारे साथ कुछ ऐसा घटा था कि हमारे पूरे परिवार का बाबूजी के बताए गए जीवन के उच्च-मूल्यों तथा आदर्शों पर विश्वास एक बार फिर पुख्ता हो गया था। पिताजी की मृत्यु की खबर सुनकर उनके अभिन्न मित्र अखिलेशजी घर आए थे। बाबूजी की तेरहवीं पर सभी मेहमानों के जाने के बाद उन्होंने मां से कहा था, ‘भाभीजी यह मौका तो नहीं है नेहा के विवाह की बातें करने का, लेकिन फिर भी मैं सोचता हूं कि अगर मैं यह बात आपसे अभी कर लूं तो सही रहेगा। मैं आपकी बेटी नेहा का हाथ अपने बेटे चिरंजीव के लिए मांगता हूं। वह अभी-अभी अमरीका से एमबीए करके लौटा है और बहुत नामवर बहुराष्ट्रीय कम्पनी में नौकरी कर रहा है। एक लाख रुपए मासिक तनख्वाह है उसकी। बस मुझे उसके लिए आपकी गुणी बेटी का हाथ चाहिए।’
अखिलेशजी की बात सनुकर मां का चेहरा आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता से दमक उठा था, लेकिन अगले ही क्षण उन्होंने अखिलेशजी से कहा था, ‘भाईसाहब, हमारे अहोभाग्य कि आप नेहा को अपने घर की बहू बनाना चाहते हैं, लेकिन बहुत साधारण स्तर की शादी कर पाएंगे हम, मुश्किल से आठ-नौ लाख के बजट की। पहले आप बता दीजिए, अगर कोई मांग हो तो।’
‘अरे भाभीजी, हमें तो अपनी बहू सिर्फ एक साड़ी में एक रुपए के शगुन के साथ चाहिए।’
अखिलेशजी की बातें सुनकर घर भर में उत्साह-उमंग की लहर दौड़ गई थी। नियत वक्त पर नेहा दीदी और चिरंजीव का विवाह हो गया था। बाबूजी को याद करते-करते मेरी आंखों की कोरें अनायास गीली हो आईं थीं कि तभी हवा में तैरती मीठी सी सुगंध का अहसास मुझे हुआ था। कमरे का पर्दा हटाकर मैंने देखा था, अगले कमरे में मां सिर झुकाए बाबूजी के फोटो के सामने अगरबत्तियां जलाकर रख रहीं थीं। यह देखकर सीने में मानो बर्छी सी चुभ गई थी।
जीते जी तो मां ने बाबूजी की कभी कदर नहीं की। हर वक्त उन्हें अपमानित, प्रताडि़त करने में कोई कसर कभी नहीं छोड़ी, तो आज क्यों उनके फोटो के सामने सिर झुकाकर अगरबत्तियां जला रहीं हैं?
बाबूजी के महाप्रयाण को आज वर्षों होने आए, लेकिन यह प्रश्न आज भी मेरे जेहन में उमड़-घुमड़ रहा है और मुझे उसका जवाब आज तक नहीं मिल पाया है।

Language: Hindi
514 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
शिवकुमार बिलगरामी के बेहतरीन शे'र
शिवकुमार बिलगरामी के बेहतरीन शे'र
Shivkumar Bilagrami
बेटी
बेटी
Dinesh Yadav (दिनेश यादव)
उनको शौक़ बहुत है,अक्सर हीं ले आते हैं
उनको शौक़ बहुत है,अक्सर हीं ले आते हैं
Shweta Soni
विचार
विचार
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
खवाब
खवाब
Swami Ganganiya
माँ
माँ
Arvina
खेत -खलिहान
खेत -खलिहान
नाथ सोनांचली
#लघुकथा
#लघुकथा
*Author प्रणय प्रभात*
तू है तो फिर क्या कमी है
तू है तो फिर क्या कमी है
Surinder blackpen
कर्म और ज्ञान,
कर्म और ज्ञान,
डॉ विजय कुमार कन्नौजे
माँ
माँ
Shyam Sundar Subramanian
महोब्बत करो तो सावले रंग से करना गुरु
महोब्बत करो तो सावले रंग से करना गुरु
शेखर सिंह
श्रोता के जूते
श्रोता के जूते
नंदलाल सिंह 'कांतिपति'
" धरती का क्रोध "
Saransh Singh 'Priyam'
वक्त से वकालत तक
वक्त से वकालत तक
Vishal babu (vishu)
स्मार्ट फोन.: एक कातिल
स्मार्ट फोन.: एक कातिल
ओनिका सेतिया 'अनु '
इन दिनों
इन दिनों
Dr. Kishan tandon kranti
Maa pe likhne wale bhi hai
Maa pe likhne wale bhi hai
Ankita Patel
धर्म
धर्म
पंकज कुमार कर्ण
Tum meri kalam ka lekh nahi ,
Tum meri kalam ka lekh nahi ,
Sakshi Tripathi
*25_दिसंबर_1982: : प्रथम पुस्तक
*25_दिसंबर_1982: : प्रथम पुस्तक "ट्रस्टीशिप-विचार" का विमोचन
Ravi Prakash
श्री रामचरितमानस में कुछ स्थानों पर घटना एकदम से घटित हो जाती है ऐसे ही एक स्थान पर मैंने यह
श्री रामचरितमानस में कुछ स्थानों पर घटना एकदम से घटित हो जाती है ऐसे ही एक स्थान पर मैंने यह "reading between the lines" लिखा है
SHAILESH MOHAN
बचपन की यादें
बचपन की यादें
Neeraj Agarwal
शायरी - ग़ज़ल - संदीप ठाकुर
शायरी - ग़ज़ल - संदीप ठाकुर
Sandeep Thakur
"इशारे" कविता
Dr. Asha Kumar Rastogi M.D.(Medicine),DTCD
💐प्रेम कौतुक-217💐
💐प्रेम कौतुक-217💐
शिवाभिषेक: 'आनन्द'(अभिषेक पाराशर)
*कड़वाहट केवल ज़ुबान का स्वाद ही नहीं बिगाड़ती है..... यह आव
*कड़वाहट केवल ज़ुबान का स्वाद ही नहीं बिगाड़ती है..... यह आव
Seema Verma
व्यथा दिल की
व्यथा दिल की
Devesh Bharadwaj
23/92.*छत्तीसगढ़ी पूर्णिका*
23/92.*छत्तीसगढ़ी पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
फूलों से भी कोमल जिंदगी को
फूलों से भी कोमल जिंदगी को
Harminder Kaur
Loading...